SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 369
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४१ जैन भात कवि : जीवन और साहित्य देखत दुख मजि जाहिं दशौं दिश, पूजत पातक-पुंज गिरे। इस संसार-सार-सागर सौं और न कोई पार करै । इक चित ध्यावत वांछित पावत, आवत मंगल विधन टरै । भोहनि धूल परी माथे चिर, सिर नावत तत्काल झरै ॥ तबलौं भजन सँवार सयानै, जबलौं कफ नहिं कंठ भरै । अगनि प्रवेश भयो घर 'भूधर' खोदत कूप न काज सरै ॥" परमार्थ जखड़ी जैनोंमे जखड़ियां लिखनेकी परम्परा बहुत पुरानी है। हर्षकीर्ति, रूपचन्द, दौलतराम, रामकृष्ण और जिनदास आदि सभीने जखड़ियाँ लिखी हैं । भूधरदासकी इस जखड़ीमे केवल पांच पद्य है । पं० पन्नालाल बाकलीवाल-द्वारा सम्पादित 'जिनवाणीसंग्रह' मे इसका प्रकाशन हो चुका है।' __ मनको सीख देते हुए कवि कह रहा है कि ओ मेरे मन ! तुझे इस संसारमे थोड़े ही दिन तो जीवित रहना है, इसलिए तू भगवान् जिनेन्द्रके चरणोसे प्रेम कर । जिनेन्द्र-भक्तिके बिना करोड़ बरसों तक जीवित रहना भी व्यर्थ है । जब तूने नरपर्याय प्राप्त की है तो ज्ञानी गुरुकी बात समझकर भगवान् 'जिन' की भक्ति कर, "अब मन मेरे बे, सुन सुन सीख सयानी। जिनवर चरना बे, कर कर प्रीति सुज्ञानी ॥ कर प्रीति सज्ञानी शिवसुख दानी. धन जीतब है पंच दिना। कोटि वरस जीवौ किस लेखे, जिन चरणाम्बुज भक्ति विना ॥ नर परजाय पाय अति उत्तम गृह बसि यह लाहा लेरे। समझ समझ बोलें गुरु ज्ञानी, सीख सयानी मन मेरे ॥१॥" गुरु-स्तुति भूधरदासने दो गुरु स्तुतियोंकी रचना की थी, और दोनों ही 'जिनवाणी संग्रह' में प्रकाशित हो चुकी हैं। जैनोमे देव, शास्त्र और गुरुकी पूजा बहुत पुराने समयसे चली आ रही है। गुरुके बिना न तो भक्तिकी ही प्रेरणा मिलती है और न ज्ञान ही प्राप्त होता है। इसीलिए एक ओर तो ज्ञानियोमे गुरुकी महिमा है, तो दूसरी भोर भक्त भी गुरुके बिना नहीं चल पाता। यहां भूधरदासजी कर्म-शृंखलाओंको काटना चाहते हैं, किन्तु उनको पूरा १. बृहजिनवाणी संग्रह, किशनगढ़, सम्राट् संस्करण, पृ० ६०४,६०५ । २. बृहब्जिनवाणी संग्रह, किशनगढ, सम्राट संस्करण, सितम्बर १९५६, पृ० १२८-१५१ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy