________________
हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि विखरे हुए है। प्रकाशित 'पदसग्रह" मे ८०पद और विनती आदि हैं । उनका विषय जिनेन्द्र, जिनवाणी और गुरुको भक्तिसे सम्बन्धित है। अनेक पद आध्यात्मिक भावोंके द्योतक भी है । मनको चेतावनी देते हुए लिखनेके पीछे जैनोंकी अपनी परम्परा है । भूधरदासको इस शैलीपर कबीरका प्रभाव स्वीकार नही किया जा सकता।
यह जीव संसारके सुख और वैभवोंमें सराबोर होकर भगवान्का नाम लेना भी भूल जाता है। दुःखोंमें तो सभी भगवान्को शरणमें जाते है, किन्तु सुखमे जो भगवान्की भक्ति करे वही सच्चा भक्त है। यहां भक्त कवि संसारकी असारताको बतलाता हुआ जीवको भगवान्के भजनकी ओर प्रेरित कर रहा है,
"भगवन्त मजन क्यों भूला रे ? यह संसार रैन का सुपना, तन धन बारि-बबूला रे ।
भगवन्त भजन क्यों भूला रे? इस जोबन का कौन भरोसा, पावक में तृण-तूला रे । काल कुठार लिये सिर ठाड़ा, क्या समझै मन फूला रे ॥
मगवन्त भजन क्यों भूला रे ? ॥ स्वारथ साधै पांच पांव तू, परमारथ कौं लूरा रे । कहुं कैसे सुख पैये प्राणी, काम करै दुख मूला रे ॥
___ मगवन्त भजन क्यों भूला रे ? ॥ मोह पिशाच छल्यो मति मारे, निज कर कंध वसूला रे । मज श्री राजमतीवर भूधर दो दुरमति सिर धूला रे ॥
भगवन्त मजन क्यों भूला रे ॥"
न जाने कब मौत आ जाये, इसलिए भगवान् जिनेन्द्रके चरणोंको तो कभी विस्मरण करना नहीं चाहिए। उनके दर्शन-मात्रसे ही दुःख भाग जाते हैं और पूजासे तो बड़े-बड़े पाप भी नष्ट हो जाते है। भगवान्के चरणोंका एकचित्त हो ध्यान करनेसे मनोकामनाएं पूरी हो जाती है, मंगल संघटित हो उठते है और पाप टल जाते हैं। मस्तकके झुकाते ही मोहरूपी धूल भी झड़ जाती है। भक्त कवि भूधरदासका कथन है कि जबतक कफ कण्ठमे आकर नहीं अड जाता, तबतक भगवान्को भज ले । घरमें अग्निके प्रविष्ट हो जानेसे कूप खोदना चातुर्य नहीं है,
"जिनराज चरन मन, मति बिसरै।
को जाने किहिं बार काल की, धार अचानक भानि परै ॥ १. यह पदसंग्रह 'जनवाणी प्रचारक कार्यालय कलकता' से प्रकाशित हुआ था।