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________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य इसका प्रकाशन बहुत पहले 'जिनवाणी प्रचारक कार्यालय कलकत्ता' से हुआ था। यह एक मौलिक कृति है, अर्थात् किसी संस्कृत रचनाका अनुवाद नहीं है। जैनपरम्परामे चरित ग्रन्थ लिखनेके लिए कुछ ऐसी निश्चित बातें है, जो प्रत्येक रचनामे पायी जायेगी, और वह इसमे भी है। पूर्व भवोंका वर्णन, नगरियों और प्राकृतिक शोभाका उल्लेख, माके सोलह स्वप्न, और पचकल्याणोंका भक्ति'प्रवाह प्रत्येक कृतिमे मिलेगा। शैली-गत भिन्नता ही नवीनता कही जा सकती है। भूधरदासको शैली प्रसादगुणयुक्त है, और भाषा कोमलकान्त पदावलीसे समन्वित । 'पावपुराण' एक महाकाव्य है । इसमे ९ अधिकार हैं। भगवान् पार्श्वनाथको जन्मसे ही नही, किन्तु पूर्व भवोंसे लेकर निर्वाण पर्यन्तको कथा है। प्रथम अधिकारसे अन्तिम सर्ग तकको कथामें एक सम्बन्धनिर्वाह है। अवान्तर कथाएं मुख्य कथानककी पुष्टि और अभिवृद्धि करतो हो है। नायक क्षत्रिय राजकुमार और तीर्थकर है। शान्तरसको प्रधानता है, वैसे अन्य रसोंका भी समावेश हुआ है। सभी अधिकारोंमे दोहा-चौपाईका बहुत अधिक प्रयोग है, कही-कहीं सोरठा और छप्पय भी आये है । विविध प्राकृत दृश्योंका वर्णन है। प्रारम्भ और अन्तमे मंगलाचरण भी है । काव्यका नामकरण नायकके नामपर हुआ है। इस भांति महाकाव्य के सभी लक्षण इसमें वर्तमान है। प्रारम्भमे ही भगवान् पार्श्वनाथकी स्तुति की गयी है। कविका अटल विश्वास है कि उनको वन्दना करनेसे, अनादिकालसे बंधे हुए कर्म छूट जायेंगे, "बाघ सिंह वश होंहिं, विषम विषधर नहिं डकैं। भूत प्रेत बैताल, व्याल बैरी मन शंकैं॥ शाकिनि डाकिनि अगनि, चोर नहिं भय उपजावें। रोग सोग सब जाहिं, विपत नेरे नहिं आवै ॥ श्री पार्श्वदेव के पद कमल, हिये धरत निज एक मन । छूटें अनादि बंधन बंधे, कौन कथा विनशैं विधन ॥ ५॥" महाराजा आनन्दने मुनिवर विपुलमतीसे पूछा कि "प्रतिमा धातु परवान को, प्रगट अचेतन अंग । पूजक जन को पुण्य फल, क्यों कर देय अभंग ॥ तुम जग में १. महाकाव्यके इन लक्षणोंके लिए आचार्य विश्वनाथका साहित्यदर्पण, छहा परिच्छेद, पद्य ३१५-२४ देखिए । २. पाश्वपुराण, पृष्ठ १।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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