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जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष
यहै गंगा त्रिविधि विचार में त्रिपथ गौनी,
यहै मोख साधन को तीरथ की घरनी। यहै गोपी यहै राधा राधे भगवान भाव,
यहै देवी सुमति अनेक भांति वरनी॥""
सवैया
यह भी ब्रजभाषाका छन्द है। इसका मूल संस्कृतके वणिक-वृत्तोंमें सन्निहित है। जैन हिन्दीके कवियोने 'सवैया के विविध भेदोंका सफल प्रयोग किया है। उन्होंने कवित्तकी अपेक्षा सवैयाको अधिक अपनाया। सवैयाकी जैसी छटा, इन कवियोंकी रचनाओमे देखनेको मिलती है अन्यत्र नहीं देखी जा सकती। पाण्डे रूपचन्द्र ने सवैयोंका अधिकाधिक प्रयोग किया है। उनमें से एक इस प्रकार है, "जीवत की आस करे, काल देखै हाल डरे,
___ डोले च्यारू गति पै न आवै मोछ मग मैं ।। माया सौं मेरी कहै मोहनी सौं सीठा रहै,
तापै जीव लागै जैसा डांक दिया नग मैं ॥ घर की न जानै रीति पर सेती मांडे प्रीति,
__ वाट के बटोई जैसे आइ मिले वग मै॥ पुग्गल सौं कहै मेरा जीव जानै यहै डेरा,
कम की कुलफ दीयै फिरै जीव जग मैं ॥"' भूधरदासने मत्तगयन्द और दुमिल सर्वयोंका प्रयोग किया है। उन्होंने बुरे कवियोंकी निन्दा सवैयोंमें ही की है। एक मत्तगयन्द सवैया देखिए,
"कञ्चन कुम्मन की उपमा, कह देत उरोजन को कवि बारे । ऊपर श्याम विलोकत के, मनि नीलम की ढकनी ढकी छारे॥ यौं सतबैन कहैं न कुपंडित, ये जुग आमिषपिंड उघारे ।
साधन झार दई मुँह छार भये इहि हेत किधौं कुच कारे ।।" उन्होंने तीर्थकरोंकी स्तुतियां भी अधिकांशतया मत्तगयन्द सवैयोंमे ही लिखी है । भगवान् चन्द्रप्रभकी स्तुति करते हुए उन्होंने लिखा है, १. बनारसीदास, नवदुर्गा विधान, प्वाँ कवित्त, बनारसीविलास, जयपुर, १९५४ ई०,
पृ० १७० । २. पाण्डे रूपचन्द, अध्यात्म सवैया, आमेर शास्त्र भण्डारकी प्रति, पद्य ३० । ३. भूधरदास, जैनशतक, कलकत्ता, ६५वा सवैया, पृ० २१ ।