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हिन्दी जैन भक्ति काग्य और कवि कवित्त
कवित्त व्रजभाषाका प्रिय छन्द है । मूलतः बन्दीजन इसका प्रयोग करते थे। आध्यात्मिक और भक्तिके क्षेत्रमें, जैन कवियोंने इस छन्दका सफल प्रयोग किया है । भैया भगवतीदास 'कवित्तो' के राजा थे। उनका एक कवित्त देखिए,
"धूमन के धौरहर देख कहा गर्व करे, ये तो छिनमाहि जाहिं पौन परसत ही। संध्या के समान रंग देखत ही होय भंग, दीपक पतंग जैसे काल गरसत ही॥ सुपने में भूप जैसें इंद्रधनु रूप जैसे, भोसबूंद धूप जैसें दुरै दरसत ही। ऐसोई मरम सब कर्म जाल वर्गणा को,
तामें मूढ मग्न होय मरै तरसत ही ॥"' 'भैया' ने मात्रिक कवित्तोंका भी प्रयोग किया है। किन्तु जैसी ताल और लय उपर्युक्त कवित्तमें है, मात्रिकमें नहीं आ पायो है। एक मात्रिक कवित्त इस प्रकार है,
"चेतन जीव विचारहु तो तुम, निहचै ठोर रहन की कौन । देवलोक सुरइन्द्र कहावत, तेहू करहिं अंत पुनि गौन ॥ तीन लोकपति नाथ जिनेश्वर, चक्रीधर पुनि नर है जौन ।
यह संसार सदा सुपने सम, निहचै वास इहां नहीं होन ॥"* भूधरदासने 'जैनशतक' में 'मनहर कवित्तों का अधिक प्रयोग किया है। उनमें भी 'रूपको न खोज रह्यो तरु ज्यों तुषार दह्यो', "जाकों इन्द्र चाहैं अहमिन्द्र से उमाहै जासौं" और "सांचौ देव सोई जा में दोष को न लेश कोई" उत्तम है। कवि बनारसीदासने 'नवदुर्गा विधान' कवित्तोंमें ही लिखा है। उसका एक कवित्त इस प्रकार है, "यह सरस्वती हंसवाहिनी प्रगट रूप,
यह भवभेदिनी मवानी शंभुघरनी। यह ज्ञानलच्छन सो लच्छमी विलोकियत,
यहै गुणरतन मंडार मार भरनी। १. मैया भगवतीदास, पुण्यपचीसिका, १७वाँ कवित्त, ब्रह्मविलास, पृ० ५ । । २. मैया भगवतीदास, शत अष्टोत्तरी, ७७वाँ कवित्त, ब्रह्मविलास, १९२६ ई०, बम्बई,
पृ० २५॥ ३. भूधरदास, बैनशतक, कलकत्ता, मनहर कवित्त, ३६, ४१, ४५, पृ० १३, १५ ।