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हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि
बीस तीर्थकर पूजा, विदेहक्षेत्र पूजा, पंचमेरु पूजा, दशलक्षण धर्मपूजा, सोलह कारण पूजा, रत्नत्रय पूजा, निर्वाण क्षेत्र पूजा, नन्दीश्वर द्वीप पूजा, अष्टाह्निका पूजा, सिद्धचक्र पूजा, सरस्वती पूजा ।
इनमे-से देवशास्त्रगुरु पूजाकी अधिक ख्याति है। देवसे तात्पर्य साक्षात् भगवान अरिहन्तसे है, साधारण देवोसे नही। शास्त्रपूजाका अर्थ उन शास्त्रोसे हैं, जिनमे भगवान् अर्हन्त के मुंहसे निकले हए दिव्य वचन निबद्ध है। आचार्य, उपाध्याय और साधु गुरु माने गये है। वे ही संसार-समुद्रसे पार करनेके लिए जहाजके समान है। तीनो ही की समुच्चय रूपसे अष्ट द्रव्योसे पूजा की गयी है। तीनों हो 'रतन' के ममान है, जिनको भक्तिसे 'परमपद' प्राप्त होता है,
"प्रथम देव अरहंत सुश्रुत सिद्धान्त जू । गुरु निरग्रन्थ महंत मुकतिपुर पंथ जू॥ तीन रतन जगमाहिं सो ये भवि ध्याइये । तिनकी भक्ति प्रसाद परम पद पाइये ॥१॥ पूजों पद अरहंत के, पूजों गुरु पद मार।
पूजों देवी सरस्वती, नितप्रति प्रष्ट प्रकार ॥२॥" सोलह कारण पूजामे गम्भीर गुणवाले जिनेन्द्रके चरणोपर कंचन-झारीसे निर्मल-नीर चढ़ाते हुए भक्त भाव-विभोर होकर जय-जयकार करते हुए एक लयमे कह उठता है :
"कंचन-भारी निरमल नीर पूजों जिनवर गुन-गंभीर । परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दरशविशुद्धि भावना माय सोलह तीर्थकर-पद-दाय ।
परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ॥" पंचमेरुओंको पूजामे संगीतकी लय है । पंचमेरुओके अस्सी जिन मन्दिर और सब प्रतिमाओंको नमस्कार करते हुए भक्त कहता है, हे नाथ ! आपको देखकर मुझे ऐसा सुख होगा, जिसे 'परम सुख' के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। "सीतल-मिष्ट-सुवास मिलाय, जल सों पूजौं श्री जिनराय ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ पाँचों मेरु असी जिन धाम, सब प्रतिमा को करों प्रनाम ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥" १. शानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०६ ॥