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जैन भन कवि : जीवन और माहित्य
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में जा बैठे हैं। हम मन, वचन, कायसे तुम्हारा नाम जपते है, लेकिन तुम हमें कुछ नहीं देते। हम भले-बुरे जो कुछ भी है, तुम्हारे भक्त है । हम अपराधी हैं, किन्तु आप तो कम्णाके ममुद्र हो। हे भगवन् ! केवल एक बार हमको इस भवमे निकाल लो,
"नुम प्रभु कहियत दीनदयालु । मापन जाय मुकति मैं बैठे, हम जु रुलत जग जाल । नुमरो नाम जपं हम नीके, मन वच तीनों काल । तुम तो हमको कछ देत नहि, हमरो कौन हवाल | भले बुरे हम भगत तिहार, जानत हो हम चाल । और कछु नहिं यह चाहत हैं, राग दोष को टाल ॥ हम सौं चूक परो सो बकसो, तुम तो कृपा-विसाल ।
धानत एक बार प्रभु जगत, हमकों लेहु निकाल तुम०॥" मनको एकाग्र किये बिना कुछ नहीं हो सकता । योग, समाधि, जप, तप और पूजादि सभी मनको एकाग्रता तो अभीष्ट है ही। परमेश्वरके प्रति सत्य रहनेसे और लौकिक वैभवोंकी चाह छोड़ देनेसे मनमे स्थिरता आती है। स्थिर मनसे ही वह तप तपा जा सकता है. जिससे फिर न तपना पहे. स्थिर मनसे ही वह जप जपा जा सकता है, जो फिर न जपना पड़े। स्थिर मनसे ही वह व्रत किया जा सकता है जो फिर न करना पडे, और स्थिर मनसे ही ऐसी मौत मरा जा सकता है जो फिर न मरना पड़े। पंचपरमेष्ठियोंकी शरणमें जानेसे मनमे एकाग्रता तो आती ही है, पंचेन्द्रियाँ भी वशमें हो जाती है, "ऐसो सुमिरन कर मेरे माई, पवन भै मन कितहुं न जाई । परमेसुर सौं साँच रहीजै, लोकरंजना को तज दीजै ॥ जप अरु नेम दोउ विधि धार, आसन प्राणायाम संमार । प्रत्याहार धारना कीजे, ध्यान समाधि महारस पीजै ।। सो तप तपो बहुरि नहिं तपना, सो जप जपो बहुरि नहिं जपना । सो व्रत धरो बहुरि नहिं धरना, ऐपो मरो बहुरि नहिं मरना । पंच परावर्तन लखि लीजै, पांचों इन्द्री को न पनीजै ।
'धानत' पांचों लच्छि लहीजै, पंच परम गुरु शरन गहीजे ॥" पूजा-साहित्य
द्यानतरायने अनेकानेक पूजाओंका निर्माण किया। कुछ तो प्रतिदिन मन्दिरमें पढी जाती है और कुछ केवल पर्वके दिनोमें ही । ये मुख्य है' : देवशास्त्रगुरु पूजा, १. सभी 10 पन्नालालजी बाकलीवाल-द्वारा सम्पादित वृहज्जिनवाणी संग्रहमें प्रकाशित
हो चुकी हैं और कुछ भारतीय ज्ञानपीठ पूजांजलि में भी छपी हैं।