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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ___कविको अहंकार बिलकुल नहीं था। विनय और लघुताका भाव ही प्रबल था। इस रचनाके अन्तमे अपनी लघुता दिखाते हुए कविने कहा, "अक्षरोंसे तुक हुई और तुकसे छन्द बने । छन्द और अर्थ मिलकर आगम बना। किन्तु इस आगम, अर्थ और सुछन्दके कर्ता हम नहीं है। यह तो गंगाका जल लेकर गंगाको ही अर्घ्य दिया गया है। हमने तो अनादि अनन्त शन्द-गंगासे ज्ञान लिया और उसीको समर्पित कर दिया।" इस रचनाके कतिपय पदोंको भावसहित नीचे दे रहा हूँ। उससे स्पष्ट हो जायेगा कि द्यानतराय कठिनसे कठिन भावको भी आसान भाषामें व्यक्त कर सकते थे। ___ भगवान्ने, सेठ सुदर्शन, सती सीता, वारिषेण, श्रीपाल और सोमापर आनेवालो विपत्तियोंको दूर किया। इससे वे अत्यधिक सुखी हुए। किन्तु न जाने क्यों भगवान्ने मेरे समय बहुत विलम्ब किया है। मुझे अभीतक उनकी कृपा प्राप्त नहीं हुई। ऐसा उपालम्भ देते हुए भक्त कहता है,
"मेरी बेर कहा ढील करी जी। सूली सों सिंहासन कीना, सेठ सुदर्शन विपति हरी जी ॥ सीता सती अगनि में बैठी, पावक नीर करी सगरी जी। वारिषेण पै खडग चलायो, फूल माल कीनी सुथरी जी॥ धन्या वापी परथो निकाल्यो, ता घर रिद्ध अनेक मरी जी। सिरीपाल सागर ते तारयो, राजमोग कै मुकति वरी जी ॥ सांप कियो फूलन की माला, सोमा पर तुम दया धरी जी।
'द्यानत' में कछु जांचत नाही, कर वैराग्य दशा हमरी जी ॥" द्यानतरायके उपालम्भ अत्यधिक सरस होते है। उनमे भावप्रवणता और हृदयको छूनेको सामर्थ्य होती है। भक्तने भगवान्से कहा कि - आप दीनदयालु कहलाते हैं, किन्तु हम दीन इस संसारमें ही मर-खप रहे हैं और आप स्वयं मोक्ष
अरमनी कसमोरी गुजराती मारबारी, नरौ सेती जामै बहु देस बसैं चाह सौं। रूपचंद बानारसी चंद जी भगौतीदास, जहां भले भले कवि द्यानत उछाह सौं। ऐसे आगरे की हम कौन भांति सोभा कहें, बड़ो धर्म थानक है देखिए निगाह सौं।
धर्मक्लिास, कलकत्ता, अन्तिम प्रशस्ति, ३०वाँ पद्य । १. वही, ५४वाँ पद्य।