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________________ जैन मक कवि : जीवन और साहित्य २०३ नन्दीश्वरके ५२ चैत्यालय और उनमें विराजमान प्रतिमाओंमे में कुछ ऐसा तेज फूटता है, जिसके समक्ष करोड़ो चन्द्र और मूर्योको दुति भी फोकी है। ने वचनसे नहीं बोलने, किन्तु उनको तो देखने- मामे ही मम्यक्त्व पैदा हो जाता है : "कोटि-शशि-मान-दुति-नेज छिप जान है। महा-बैराग-परिणाम ठहरात है ।। वयन नहिं कह लखि होत सम्यक्वरं । मौन बावन्न प्रतिमा नमों सुखकर ॥२॥" 'निर्वाण-क्षेत्र-पूजा'को जयमालामे 'सम्मेदशिखर' की महिमाका वर्णन करते हुए कविने कहा कि एक बार जो कोई उसको वन्दना कर लेता है, उमे फिर नरक-पशु-गति नही होती है। नर-पति देव-पति बन जाता है। वह इहलौकिक भोगोंको भोगकर भी शिव-सुखको पा लेता है। सम्मेदशिखर विघ्नोंका विनाश करके कल्याण करनेवाला है। उममे ससारसे पार लगानेको सामर्थ्य है. "बीसों सिद्ध भूमि जा ऊपर। शिखर सम्मंद-महागिरि भू पर ॥ एक बार बंद जो कोई। ताहि नरक-पशु-गनि नहिं होई ॥८॥ नरपति नृप सुर शक्र कहावै । तिहुँ जग-मोग मोगि शिव पाचै । विघ्न-विनाशन मंगलकारी। गुण-विलास बंदौ भवतारी ॥९॥" स्तोत्र-साहित्य द्यानतरायने 'स्वयम्भू स्तोत्र', 'पार्श्वनाथ स्तोत्र' और 'एकीभाव स्तोत्र'को रचना की थी, जिनमें प्रथम दो मौलिक और अन्तिम श्री वादिराज सूरिके संस्कृत 'एकीभाव स्तोत्र' का भावानुवाद है। स्वयम्भ स्तोत्रमे चौबीस पद्य है। चौबीस तीर्थकरोम-से प्रत्येकको महिमामे एक-एकका निर्माण हुआ है। यह स्तोत्र प्रायः पूजाओकी समाप्तिपर पढा जाता है । भगवान् पार्श्वनाथ और वर्द्धमानकी महिमामे बने हुए दो पद्य देखिए। "देत्य कियो उपसर्ग अपार, ध्यान देखि आयो फनिधार । गयो कमठ शठ मुख कर श्याम, नमों मेरु सम पारस स्वाम ॥२३॥ भव सागर तें जीव अपार, धरम पोत मैं धरे निहार । डूबत काढ़े दया विचार, वदमान वंदौं बहुबार ॥२॥"
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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