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हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि
'भूधरमल' के नामसे सम्बोधित किया है, और लिखा है कि वे आगरेमें स्याहगंजमें रहते थे। स्याहगंजके मन्दिरमे ही उनका प्रतिदिन शास्त्र-प्रवचन हुआ करता था। भूधरदास कवि थे और पण्डित भी। अध्यात्म-चर्चामें उन्हें विशेष रस आता था। भूधरदास आगरेकी उसी अध्यात्म-परम्परामें-से थे, जो महाकवि बनारसी. दाससे प्रारम्भ हुई थी।
भूधरदासका साहित्यिक-काल निश्चयरूपसे अठारहवीं शताब्दीका अन्तिम पाद था, जैसा कि 'जनशतक' और 'पावपुराण' के रचना-संवत्से प्रकट है।
भूधरदासने विपुल साहित्यका निर्माण किया, और वह सभी सरस तथा मनोरम है। उनकी रचनाओंमें विस्तार है, तो ठोसपन भी। प्रसाद उनका सबसे बड़ा गुण है । सरलता और प्रवाह किसी भी शैलीको सुचारु बना देते हैं, फिर भूवरदासको अभिव्यक्तिमें तो स्वाभाविकता भी है। काव्यको दृष्टिसे उनके साहित्यको दो भागोंमे विभक्त किया जा सकता है,, एक तो मुक्तक काव्य और दूसरा महाकाव्य । मुक्तककाव्यमें उनके द्वारा रचित 'भूधरविलास', 'पदसंग्रह', 'जखडी', 'विनतियाँ', 'बारह भावनाएं', बाईस परीषह और स्तोत्र शामिल हैं। महाकाव्यके रूपमे उन्होने 'पार्श्वपुराण'का निर्माण किया। यह उच्च कोटिकी कृति है । मध्यकालोन हिन्दीमें उसका प्रतिष्ठित स्थान है। उसमे भगवान् पार्श्वनाथको भक्तिका स्वर ही प्रमुख है। मुक्तक रचनाओंमे भक्ति है, तो अध्यात्म भी। 'जैन दर्शन' की भांति "जैन साहित्य में भक्ति और अध्यात्म नितान्त पृथक् दो पहलू नहीं है । अधिकांशतया दोनो समन्वित होकर ही चले है। भूधरदासकी रचनाओमे भी ऐसा ही है। जैन-शतक
इसकी रचना वि० सं० १७८१ पौष कृष्णा त्रयोदशी रविवारके दिन पूर्ण हुई थी। इसको रचनेको प्रेरणा धर्मानुरागी शाह हरीसिंहसे मिली थी। इसमें
१. अनेकान्त वर्ष १०, किरण १, पृष्ठ ६, १०॥ २ इसका प्रकाशन 'जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय, बम्बई' और 'जिनवाणी प्रचारक
कार्यालय, 'कलकत्ता' से हो चुका है। . ३. सतरहसै इक्यासिया, पौह पाख तम लोन ।
तिथि तेरस रविवार को शतक समापत कीन ॥
जैनशतक, कलकत्ता, अन्तिम दोहा, पृ० ३२ । ४. हरीसिंह साह के सुवंश धर्मरागी नर,
तिनके कह सों जोरि कोनी एक ठाने हैं।