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________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ३३७ १०७ कवित्त, सवैया, दोहा और छप्पय है । इस छोटे से काव्यके प्रारम्भमें अर्हन्त, सिद्ध, जिनवाणी और साधुओकी स्तुतियाँ है, मध्य में असार संसारसे विमुख होने की बात और अन्तमे कुछ आध्यात्मिक उपदेश तथा जैनत्वकी महिमाका वर्णन है । यह संसार असार हैं । इसमें जन्म और मृत्युका चक्कर चला ही करता है । एक ही समयमे कही तो जन्मकी बधाइयाँ बजती है, और कहींपर पुत्रवियोगसे हाहाकार मचता है । किन्तु सब कुछ जानते हुए भी यह मूढ़ नर चेतता नहीं, और करोड़ोंकी एक-एक घड़ीको व्यर्थ करता हो जाता है, "काहु घर पुत्र जायौ काढू के वियोग आयो, काहू रागरंग काहू रोधारोई करी है । जहाँ मानु ऊगत उछाह गीत गान देखे, साँझ समै ताही थान हाय हाय परी है ॥ ऐसी जग रीति की न देखि भयभीत होय, हा हा नर मूढ़ तेरी मति को हरी हैं । मनुष जनम पाय सोवत विहाय जाय, खोवत करन की एक एक घरी है | २१|| " सासारिक प्राणी चाहता है कि किसी प्रकार सम्पत्ति मिल जाये, तो हृदयकी सभी मनोनीत अभिलाषाएं उपशम हो जायें । फिर तो एक प्रासाद बन जायेगा, पत्नीको गहना गढ़ जायेगा, और सुता-सुतका ब्याह कर 'बैना' भी बांट लूंगा, किन्तु अचानक जम आ जाता है और शतरंजकी बाजी रुपीको रुपी ही रह जाती हैं, "चाहत है धन होय किसी विध तौ सब काज सरै जियरा जी । गेह चिनाय करूं गहना कछु, व्याहि सुतासुत बांटिये भांजी ॥ चिंतत यौं दिन जाहिं चले, जम आनि अचानक देत दगा जी । खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाय रूपी शतरंज की बाजी ॥ ३२ ॥” फिर फिर प्रेरे मेरे आलस का अन्त भयो, उनकी सहाय यह मेरो मन माने है || जैन शतक कलकत्ता, पृ० ३२ । ४३
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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