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हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि
अन्त
"रूपचन्द जिन विन, हो चरननु को दासु । मैं इय लोक सुहावनौ, विरच्यो किंचित् रासु ॥ जो यह सुरधरि गावहिं, चित दे सुनहिं जे कान ।
मन वांछित फल पावहिं, ते नर नारि सुजान ॥" खटोलना गीत ___ यह गोत देहलीके शास्त्र-भण्डारमे मौजूद है। यह अनेकान्त वर्ष १०, किरण २ में प्रकाशित हो चुका है। इसमे १३ पद्य है और सभी अध्यात्म रससे युक्त है । उसमे काव्य-गत रमणीयता भी है। उसका एक पद्य देखिए,
"सिद्ध सदा जहां निवसहीं, चरम सरीर प्रमान ।
किंचिदून मरानोज्झित, मूसा गगन समान ॥" अन्य रचनाएँ
उपर्युक्त रचनाओके अतिरिक्त 'सोलह स्वप्न फल' और 'जिन स्तुति' नामको दो रचनाएं और प्राप्त हुई है। पहलो जयपुरके बड़े मन्दिरके गुटका नं १२६ में निबद्ध है, और दूमरी जयपुरके वधीचन्दजीके मन्दिरमे गुटका नं० १२५ मे अंकित है।
पाण्डे रूपचन्द हिन्दीके एक सामर्थ्यवान् कवि थे। उनकी भाषाका प्रसाद गुण आनन्द उत्पन्न करता है, तो सीधे-साधे भाव मर्मको रस-विभोर बना
५१. हर्षकीर्ति (वि० सं० १६८३ )
हर्षकोतिने छोटी-छोटी मुक्तक रचनाओंका निर्माण किया है। उनमें अध्यात्म और भक्ति रसको अधिकता है । उनको भाषापर राजस्थानीका प्रभाव है । इससे सिद्ध है कि वे राजस्थानके निवासी थे। हो सकता है कि वे जयपुर अथवा उसके आस-पासके रहनेवाले हों। उस समय जयपुर ऐसे लोगोंका केन्द्र हो रहा था, जो राजस्थानी मिश्रित हिन्दीमे लिख रहे थे। ये हर्षकीर्ति, हर्षकोतिसूरिसे स्पष्टरूपेण पथक है। हर्पकोत्तिमूरि तपागच्छके चन्द्रकोतिसूरिके शिष्य थे। उन्होने गुजरातीमे केवल 'विजय शेठ विजयशेठानी स्वल्प प्रबन्ध' की रचना की । हर्षकीति हिन्दोके कवि थे। उनकी रचनाओमें रस है और गतिशीलता। रचनाओंका विवरण निम्न प्रकार है :