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________________ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि ऋषि स्थूलभद्र निर्मल हो चुके है। उन्होंने पापरूपी मलोको विगलित कर दिया है। उनके सुयशके वर्णन करनेमे भक्त-कविको परम आनन्द प्राप्त होता है, "धन्य थूलिभद्र रिषि निर्मल परखि, वाहि कइ सरिस कुण नर कहावइ । धरति जे ब्रह्म तप सुजस तिनका, सूवन कुशल कवि परम आनन्द पावइ ॥३७॥" तेजसार-रास यह रास गुरु अभयधर्म उपाध्यायको प्रेरणासे लिखा गया था। इसकी रचना वीरमपुर नामके नगरमै वि० सं० १६२४ में हुई थी। वाचक कुशललाभका कथन है कि इस जिनपूजाको जो कोई पढ़ता है, उसके सब मनोरथ पूर्ण हो जाते है । "श्री षरतर गच्छि सहि गुरुराय, गुरु श्री अमयधर्म उवमाय । सोलहसई चउबीसि सार, श्री वीरमपुर नयर मझार । अधिकारई जिनपूजा तणइ, वाचन कुशल लाम इम भणइ । जे वांचई नई जे सांमलइ, तेहना सहू मनोरथ फलई ॥१५-१६॥" यह दोप-पूजासे सम्बन्धित काव्य है। इसकी उपलब्ध प्रति पौष शुक्ला १४ वि० सं० १६४४ को तपागच्छके सहजविमलने राजपुरमे को थी। श्रीसहजविमल तपागच्छाधिराज परमगुरु भट्टारक श्रीहेमविमलसूरिके शिष्य मुख्य पण्डित श्री सुमतिमण्डल गणिके शिष्य थे। प्रारम्भमे ही जिन-प्रतिमाके पूजनकी महिमाका उल्लेख है। जिन-प्रतिमा जिनेन्द्रके समान ही है। उसकी पूजा करनेसे इहभव और परभव दोनों ही संभल जाते है, "श्री सिद्धारथ कुलसिलुं चरम जिणेशर वीर। पान्नुगि प्रणमी तसतणा सोविनवन्नसिरीर ॥ १. इति तेजसार दीपपूजाविषये रास समाप्त, सं० १६४४ वेष, पोस सु० १४ राजपुर नगरे, तपागच्छाधिराज श्रीश्रीपरमगुरु भट्टारक श्री हेमविमलसूरि, तत् शिष्य मुख्य पण्डित श्री सुमतिमंडण गणि, तत् शिष्य सहजविमलेन लिखितो अयं रास । जनगुर्जरकविओ, प्रथम भाग, पृ० २१५ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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