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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
गाजइ-गाजइ गगन गम्भीर श्री पूज्यनी देशना रे।
मवियण मोर चकोर थायइ शुम वासना रे ॥६३॥" गुरुके ध्यानमे स्नान करते ही शीतल वायु मस्त चालसे चल रही है। सारा संसार सुगन्धिसे महक रहा है और वह सुगन्धि गुरूपदेशकी ही है। गुरु महाराजके कारण ही विश्वके सातो क्षेत्रोमे धर्म उत्पन्न हो सका है। यदि ऐसे गुरुका प्रसाद उपलब्ध हो सके तो अवश्य हो सुख मिलेगा, ऐसा भक्तको विश्वास है,
"सदा गुरु ध्यान स्नान लहरि शीतक वहइ रे । कीर्ति सुजस विसाल सकल जग मह महइ रे । साते क्षेत्र सुढाम सुधर्मह नीपजइ रे।
श्री गुरु पाय प्रसाद सदा सुख संपजइ रे ॥६॥" स्थूलभद्र-छत्तीसी
यह काव्य बीकानेरको अनूप संस्कृत लायब्रेरीके एक गुटकाके पृष्ठ ९१-९८ पर संकलित है। इसमे रचना-काल नही दिया है । कुल ३७ पद्य है। यह काव्य आचार्य स्थूलभद्रकी भक्तिमे निर्मित हुआ है । इसकी भाषामे सरसता और भावोमे स्वाभाविकता है। प्रारम्भमे हो 'स्थूलभद्र-छत्तीसी' कहनेकी प्रतिज्ञा करते हुए कविने लिखा है,
"सारद शरद चन्द्र कर निर्मल, ताके चरण कमल चितलाइकि । सुणत संतोष होइ श्रवणण कुं, नागर चतुर सुनहु चितचाइकि ॥ कुशललाम बुति आनन्द भरि, सुगुरु प्रसाद परम सुख पाइकि ।
करिहं थूलभउ छत्तीसी, अतिसुन्दर पइबंध बनाइकि ॥१॥" यह कान्य गुरु-भक्तिके अन्तर्गत आता है। गुरुकी महिमा अपार है। शिष्य कितने ही अपराध करे, किन्तु उसे विश्वास रहता है कि उदार गुरुसे क्षमा मिल ही जायेगी,
"वैसा वाइक सुणी भयउ लजित मुणि, सोच करि सुगुरु कइ पास आवई । चूक अब मोहि परी चरण तदि सिर धरि,
आप अपराध प्रापई खमावइ ॥३७॥" १. राजस्थानमे हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, चतुर्थ भाग, अगरचन्द नाहटा
सम्पादित, साहित्य संस्थान, उदयपुर, १९५४ ई०, पृष्ठ १०५ ।