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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
मालीरासौ
इसमें २६ पद्य हैं । यह एक रूपक काव्य है । जीव माली है और भव एक वृक्ष है । कविका कथन है कि भववृक्षके फल जहरके समान हैं, उन्हें नहीं चखना चाहिए,
पद
"माली वरज्यौ हो ना रहे, फल चाषण की भूष ।
बाधि सुगाडी गडगदी, कूदी चढ्यौ भवरूषि हो प्राणी ॥४॥ सुरडालि चढ़ी मालिया, हंसि हंसि ते फल षाय ।
अंति सु रोने रे कंदरो, जब माला कुमलाइ हो प्राणी ॥५॥”
जिनदास के पदों में भक्त कवि हृदयकी स्वाभाविकता सर्वत्र व्याप्त है । एक पदकी कतिपय पंक्तियाँ इस प्रकार हैं,
"आनंदरूपी आनंद करता विरद यही अति भारा ।
सुष समूह का दाता भाई महामंत्र नवकारा हो ॥ २ ॥ ऐसे प्रभु को नाम भविक जन पलक न जात बिसारा हो । जिनदास नाम बलिहारी करि हो मोहि निस्तारा हो ||३|| "
३६. त्रिभुवनचन्द्र ( १७वीं शताब्दी विक्रम पूर्वार्ध)
त्रिभुवनचन्द्र हिन्दी के प्रौढ़ कवि थे । वे आगरेके रहनेवाले थे । उन्हें पाण्डे रूपचन्द्र और कवि बनारसीदासका सान्निध्य प्राप्त हुआ था । उनकी रचनाएँ उसी रंग रंगी हुई है, जो बनारसी-मण्डलको मुख्य देन थी । उनके पारिवारिक जीवन और गुरु-परम्परा के विषय में कुछ भी विदित नही है । वे अपनी रचनाओं में केवल 'चन्द्र' का प्रयोग करते हैं ।
उनकी हिन्दी - रचनाओमें अनित्य पंचाशत, षद्रव्य वर्णन, प्रास्ताविक दोहे और फुटकर कवित है । प्रथम दो संस्कृतकी अनुवाद मात्र है, और अवशिष्ट दो मौलिक कृतियाँ हैं । भाषा-शैलीके आधारपर चन्द्रशतक भी इन्होंकी कृति मालूम होती है । उसमें कविके उपनाम चन्द्रका ही प्रयोग है । त्रिभुवनचन्द्र, १७वीं शताब्दी के प्रथम पादके कवि थे । उनकी रचनाओमे उत्कृष्ट कोटिका साहित्य निबद्ध है ।
१. प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, प्रस्तावना, पृष्ठ १८ ।