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________________ १२७ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य "ना हौं राचौं णा हौं विरचौं, णा कछु मंति ण आणौ । जीव सबै कुइ केवल ज्ञानी, आप्पु समाणा जाणउ ॥२३॥ मोह महागिरि षौदि बहाऊँ. इंद्रिय थूलि न राषउ । कंदर्प सर्प निदप्प करे बिनु, विषया विषम विष नाखौ ॥२६॥" जखड़ी ____यह काव्य 'बृहज्जिनवाणी संग्रह' (पृ० ६०९-६११ ) मे प्रकाशित हो चुका है। इसका रचनाकाल वि० सं० १६७९ है। इसमें सात पद्य है। इसमे चौथा पद्य सम्यग्दृष्टिकी महिमासे युक्त है, "दसण गुण बिन जात जिके दिन सो दिन धिक-धिक जानि । धन्य सोहि सोही परमिनो, भ्रांति म मनमाहिं आनि ॥ भ्रांति सु मिथ्यादृष्टि लच्छन, संशय रहित सुदिष्टी। यों जाने विन गयौ गही जे, पद पावै परमिष्टी ॥२॥" लावणी पाण्डे जिनदासको रची हुई दो लावणी श्री दि० जैन अतिशय क्षेत्र महावीरजीके एक अधजले गुटकेमे निबद्ध है। "मैं भव भव माहीं देव जनेस्वर पाऊँ इन चौरासी कर माहिं फेरि नहीं आऊँ ।। जै जै जैनधरम जिनदास लावणी गाई तेरी अचल अषंडित ज्योति सदा सुखदाई ॥" चेतनगीत इस गीतमें ५ पद्य है। कविने चेतनको सम्बोधन करके कहा है, "चेतन हो तेरो परम नियन, काइ दलिद्री होइ रह्यो हो । निरमोलिक हो नग तेरे हाथ, मुठी बाँधि बीकत रह्यो । कत रह्यो मिथ्या मूंठि बांधि बि, बता नग अछता करो। निजु रत्न भीतरि जतन बाहिरि, दिष्टि कहि कैसे फुरौ ॥ इमि प्रकट परिषि बिहरषु, मानिबी बिलबिउ जिगहि जेतनौ तिम परम पंडित दिव्य दिष्टिहि, कहो तुम स्यों चेतना ॥१॥" १. महावीरजीशास्त्रभण्डारकी हस्तलिखित प्रति ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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