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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
अनित्य पंचाशत
इसमे पद्य संख्या ५५ तथा
इसकी प्रति आमेर के शास्त्र भण्डारमे मौजूद है । छन्द अधिकतर छप्पय और सवैया है। इसकी दूसरी प्रति जयपुर के पण्डित लूंणकरजी के मन्दिर मे विराजमान गुटका नं० ३५ वेष्टन नं० ३१९ मे निबद्ध है । इस गुटकेपर लेखनकाल वि० सं० १६५२ पडा हुआ है । इससे सिद्ध है कि 'अनित्य पंचाशत' की रचना १६५२ से पूर्व हो चुकी थी । बनारसीदासका 'कल्याण मन्दिरस्तोत्र' भी इसी गुटके में निबद्ध है ।
प्रारम्भिक मंगलाचरणमे ही कविने अत्यधिक सरस ढंगसे उम भगवान्की जय-जयकार की है, जो संसारमे 'परमातम' के नाम प्रसिद्ध है,
"सुद्ध स्वरूप अनूपम मूरति जासु गिरा करुनामय सोहै । संजमवंत महामुनि जोध जिन्हों पर धीरज चाप घरी है । मारन को रिपु मोह तिन्हें वह तीक्षन सारक पंकति हो है । सो भगवंत सदा जयवंत नमों जग में परमातम जो है ॥' ज्ञानीजन सासारिक हर्ष और शोकको वास्तविक नही मानते । वे इन दोनोसे ही निरपेक्ष रहते है । इस विचारसे सम्बन्धित एक पद्य देखिए,
"जहाँ है संजोग तहाँ होत है वियोग सही,
जहाँ है जनम तहाँ मरण को बास है । संपति विपति दोऊ एक ही भवन दासी जहाँ वसै सुष तहाँ दुष को विलास है । जगत में बार-बार फिरै नाना परकार
करम अवस्था झूठी थिरता की आस है
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नट कैसे भेष और और रूप होहिं तातें,
हरष न सोग ग्याता सहज उदास है ॥५१॥" अन्तमे संस्कृत 'अनित्य पंचाशत' के रचयिता आचार्य पद्मनन्दिकी वन्दना
की है ।
चन्द्रशतक
इसकी प्रति जैन सिद्धान्त भवन आरामे मौजूद है। इसमें १०० पद्य है । वित्त और सर्वयोंका ही प्रयोग किया गया है। यह एक प्रौढ़ रचना है । भाषा सरल होते हुए भी सरस है और भाव सीधे-साधे होते हुए भी मधुर है । कवितामे न तो प्रसादकी कमी है और न लालित्यकी । सभी पद आध्यात्मिकतासे ओतप्रोत है । उदाहरण के लिए,
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