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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
"गुन सदा गुनी माहिं, गुन गुनी मिन्न नाहिं,
मिन्न तो विभावता, स्वभाव सदा देखिए। सोई है स्वरूप आप, आप सो न है मिलाप,
मोह के अभाव में, स्वभाव सुद्ध पेखिए । छहों द्रव्य सासते, अनादि के ही भिन्न भिन्न,
आपने स्वभाव सदा, ऐसी विधि लेखिए। पाँच जड़ रूप, भूप चेतन सरूप एक,
__ जानपनों सारा चंद, माथे यों विसेखिए ॥"
३७. कुमुदचन्द (वि० सं० १६४५-१६८७ ) ___ इनका जन्म गोपुर नामके गांवमे हुआ था। पिताका नाम सदाफल और माताका नाम पद्माबाई था। कुल मोढवंशके नामसे विख्यात था। यशपाल मोढके 'मोहपराजय' से विद्वान् परिचित ही होंगे। मोढ गुजराती बनियां होते थे। अवश्य ही कुमुदचन्दके पूर्वज गुजरातसे राजस्थानके गोपुर ग्राममे आ बसे होगे । उनकी रचनाओपर राजस्थानी और गुजरातीका प्रभाव है। प्राचीन हिन्दी, राजस्थानी और गुजरातीमें विशेष अन्तर नही था। अतः कुमुदचन्दकी कृतियोंको इनमें से किसी एक भाषाकी कहना संगत नही है।
उन्हे जन्मसे ही उदासीन प्रवृत्ति और अध्ययनशील मस्तिष्क मिला था। पहलीका प्रभाव यह हुआ कि वे युवावस्थासे पूर्व ही उदासीन हो गये । अध्ययनशोल होनेके कारण उन्होंने शीघ्र ही व्याकरण, काव्य और सिद्धान्तपर अधिकार कर लिया। भट्टारक रत्नकोत्ति अपने शिष्यके ज्ञानको देखकर मुग्ध हो उठे। बारडोलीमें नया पट्ट स्थापित किया था। उसपर कुमुदचन्दको वि० सं० १६५६ मे अभिषिक्त कर दिया। इस पदपर वे वि० सं० १९८७ तक प्रतिष्ठित रहे। १. मोढवश शृंगार शिरोमणि, साह सदाफल तात रे।
जायो यतिवर जुग जयवंतो, पद्माबाई सोहात रे ॥ धर्मसागरकृत गीत । २. संवत् सोल छपन्ने वैशाखे प्रगट पयोधर थाप्या रे । रत्नकीत्ति गोर बारडोली वर सूर मंत्र शुभ आप्या रे ॥ माई रे मनमोहन मुनिवर सरस्वती गच्छ सोहंत । कुमुदचन्द भट्टारक उदयो भवियण मन मोहंत रे॥
गणेश कवि कृत 'गुरुस्तुति। ३. वही।