________________
हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अन्तापिका और बहिर्लापिका भी निबद्ध हैं। चित्रबद्ध कविताओंकी परम्परा जैनोंमें बहुत पुरानी है। संस्कृतके जैन रीति-ग्रन्थोके कर्ताओंने भी चित्रबद्धकविताकी रचना पर्याप्त मात्रामे की है।
७२. शिरोमणिदास (वि० सं० १७३२ )
शिरोमणिदास नामके तीन कवि हुए है। उनमे प्रथम शिरोमणि मिश्र थे। उन्होने सं० १६७४में 'जसवन्त विलास की रचना की थी। दूसरे शिरोमणिदास भी ब्राह्मण थे। वे शाहजहाँके दरवारमें रहते थे। वहां उनकी प्रतिष्ठा थी। उनका समय १७०० के आस-पास माना जाता है। प्रस्तुत शिरोमणिदास पण्डित गंगादासके शिष्य थे। उनकी जैन धर्ममें निष्ठा थी। उन्होंने तत्सम्बन्धी ग्रन्थोका ही निर्माण किया।
ऐसा प्रतीत होता है कि ये भट्टारक सकलकीर्तिसे प्रभावित थे। उनके उपदेशोंसे प्रेरित होकर ही इन्होने नगर सिंगरौनमे रहकर एक बृहद् ग्रन्थका निर्माण किया था। उस समय सिंगरौनमें राजा देवीसिह राज्य करते थे। इस ग्रन्थका नाम 'धर्मसार' था। 'काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका के खोज-विवरणोंमे जिस 'धर्मसार का उल्लेख है, उसकी समाप्ति आगरेमे मानी गयी है। और भट्टारक सकलक्रीतिसे प्रभावित होनेकी कोई बात नहीं है। इसका समर्थन इनके रचे हुए एक दूसरे ग्रन्थ 'सिद्धान्त शिरोमणि से भी होता है, जिसमें उन्होने श्वेताम्बर यतियों और दिगम्बर भट्टारकों दोनों ही को खरी-खरी सुनायी है। इनकी रचनाओंमें सम्यक्त्व प्रधान है। उन्हें बनारसीदासक 'अध्यातमियाँ' सम्प्रदायकी परम्परामें गिना जाना चाहिए । वे आगरेके ही रहनेवाले थे। ___ अभीतककी खोजोंमे उनकी दो रचनाएं उपलब्ध हुई है-'धर्मसार' और सिद्धान्त शिरोमणि' । दोनों हो में भक्ति-कालकी मुख्य-मुख्य प्रवृत्तियां प्रधान है। 'सिदान्त शिरोमणि'मे धर्मके नामपर आडम्बरके विरोधमे विद्रोह है, जैसा कि सन्त कवियोंमें था। 'धर्मसार में निर्गुण और सगुण भक्तिका समन्वय है । उसमें मनको सम्बोधन कर-करके संसारके माया-मोह और अपने शुद्ध रूपको प्राप्त करनेकी प्रेरणा है तथा तीर्थकर, जिनवाणी और पंचपरमेष्ठीको वन्दना भी है।
१. मिश्रबन्धु विनोद, भाग २, पृ० ४२४ । २. वही, पृ० ४१८। ३. का ना० प्र० पत्रिकाका पन्द्रहवाँ त्रैवार्षिक विवरण, संख्या २००, अन्तिम प्रशस्ति ।