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जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य सिद्धान्त शिरोमणि
यह एक छोटी-सी रचना है। इसमें सम्यक्त्वको सही परिभाषाका विश्लेषण है । मध्यकालमें धर्मके नामपर बढ़ते शिथिलाचारका प्रभाव जैनोपर भी पड़ा था। श्वेताम्बर यति और दिगम्बर भट्टारक उसके प्रतीक थे। शिरोमणिदासने उनकी खरी आलोचना की। उन्हें जन-विरोध सहना पड़ा । उन्होंने परवाह नही की। जो आत्माको सही आवाज न सुन सके, वह क्या कानवाला कहलायेगा ! उनकी निर्भीकता कबीर-जैसी यो किन्नु कबीर जैसा मस्तानापन नहीं था। कबीरने तो मर्यादा मानी ही नहीं। वे उसके धेरैमें कभी न घिरे, शिरोमणिदास घिरे , किन्तु उसको गलत बन्दिशको कभी स्वीकार नहीं किया। शिरोमणिदासके दो पद्य है, "नहीं दिगम्बर नहीं वृत धार, ये जती नहीं मव ममैं अपार । यह सुन के कछु लीजे सार, उत्तर चाही मव के पार ॥५७॥ सिद्धान्त सिरोमनि सास्त्र को नाम, कीनौ समकित राषिबै कै काम ।
जो कोउ पढे सुनै नर नारि, समकित लहै सुद्ध अपार ॥५४॥" धर्मसार
इसकी रचनाके विषयमे दो संवत् उपलब्ध होते है । प्रामाणिक पांच प्रतियोंमे इसका रचना-संवत् १७३२ वैशाख सुदी ३ पड़ा हुआ है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति, जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरमे, वेष्टन नं० ८६९ मे बंधी रखी है।
जिस प्रतिपर रचना-संवत् १७५१ पड़ा हुआ है, उसका उल्लेख 'काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका'के पन्द्रहवें वार्षिक विवरणको संख्या २२० पर हुआ है। सम्पादकोंको यह प्रति जैन मन्दिर कठवारी, डा० रुनुकता, जिला आगरासे प्राप्त हुई है। इस संवत्का समर्थन करनेवाला दोहा देखिए,
"संवत सत्रै सै इकावना, नगर आगरे माहिं । ___ भादों सुदि सुष दूज को, बाल पाल प्रगटाय ॥" पं० नाथूरामजी प्रेमीने वि० सं० १७३२ को ही रचनाकाल माना है। १. हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, पृ० १६८ । २. संवत् १७३२ वैशाख मान उज्ज्वल पुनि दोस । तृतीया अक्षय शनीसमेत भविजन को मंगल सुखदेत ॥
देखिए, श्री मन्दिरजी कुँचा सेठ दिल्लीकी हस्तलिखित प्रति । ३. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, बम्बई, १६१७ ई०, पृष्ठ ६७ ।