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________________ २७८ हिन्दी जैन भक्ति कान्य और कवि हो सकता है १७५१ लेखनकाल हो । 'धर्मसार में ७६३ दोहा-चौपाई हैं। एक भक्ति-भरा पद्य है, “वीर जिनेसुर पुनवौं देव । इन्द्र नरेन्द्र कर तुम सेव । और वन्दौं हूँ गुरु जिन पाय । सुमिरत तिनके पाप नसाय ॥ बरतमान नो जिन पर ईस । कर जोरू जिन नाऊँ सीस । जै जिनेन्द्र भवि मुनि कहैं । पूजहूर्त में सरमन गहैं।" ७३. द्यानतराय (जन्म वि० सं० १७३३, साहित्यिक काल १७८०) द्यानतराय आगरेके रहनेवाले थे। इनका जन्म अग्रवाल वंश और गोयल गोत्रमे हुआ था। इनके पिताका नाम श्यामदास और पितामहका नाम वीरदास था। इनके पूर्वज लालपुरके निवासी थे और वहांसे ही आगरेमे आकर रहने लगे थे। द्यानतरायका जन्म वि० सं० १७३३ मे आगरेमें हुआ। शिक्षा भी ठीक ढंगसे हुई। एक ओर तो उन्हें उर्दू-फारसीका ज्ञान कराया गया और दूसरी और संस्कृतके माध्यमसे धार्मिक ग्रन्थोंका पठन-पाठन हुआ। अतः उन्हें संस्कृत और फ़ारसी दोनों ही का ज्ञान था। उनकी भाषापर भी दोनोंकी छाप है। जहांतक भाव-धाराका सम्बन्ध है, उन्होंने फ़ारसी साहित्यसे कुछ नहीं लिया, सब कुछ संस्कृत साहित्यसे ही अनुप्राणित है। साहित्यिक-परम्परा, जिसका उन्होंने अनुकरण किया, विशुद्ध भारतीय है। ___कवि जब केवल १५ वर्षके थे, अर्थात् वि० सं० १७४८ में उनका विवाह हो गया। उन्होंने गृहस्थाश्रमका बड़ा ही करुणा-भरा चित्र अंकित किया है। हो सकता है कि उनका गृहस्थ जीवन दुःखोंसे ओत-प्रोत रहा हो। एक स्थानपर उन्होने लिखा है, "न तो रोजगार ही बनता है और न घरमें ही धन है। खानेको बहुत फ़िकर है और पत्नी गहना चाहती है। कही उधार नहीं मिलता। साझोदार चोर स्वभावके हैं, घरमें धन नहीं आ पाता। एक पुत्र ज्वारी हो गया और एक मर गया। पुत्री जब ब्याहके योग्य हुई तो उसका विवाह कर दिया, किन्तु विवाहोपरान्त वह भी दिवंगत हो गयी। इन सुख-दुःखोंको जो जानता है, उसका भला क्या कहना?" १. रुजगार बन नाहिं धन तो न घर माहिं खाने की फिकर बहु नारि चाहै गहना।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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