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जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य
दोनों साथ-साथ पढ़ सके होंगे, किन्तु भैयाका साहित्यिक काव्य १७३१-१७५५ निश्चित है, तो फिर यह तो हो मकता है कि सं० १७०० से दस-बारह वर्ष पूर्व उनका जन्म हुआ हो, किन्तु १७वी शताब्दीका प्रथम पाद तो किसी भी दशामे प्रमाणित नहीं होता । सम्भावना तो यह है कि भैयाने अपने साहित्यिक कालमे 'रसिकप्रिया' कहीसे भी लेकर पढ़ी होगी और उसपर यह कवित्त रच डाला होगा। ___ यह भी सच है कि भैयाने केशवके अश्लील शृंगारको भले ही दुरदुराया हो किन्तु उनकी अलंकारप्रियतासे वे अवश्य ही प्रभावित हुए थे। उनके काव्यमें रूपक, यमक, अनुप्रास और चित्रालंकारोंकी भरमार है। रूपकके लिए उनके 'चेतन कर्म चरित्र', 'शत अष्टोत्तरी' और 'मधुविन्दुक चौपाईको लिया जा सकता है । यमकका एक दृष्टान्त, इस प्रकार है,
"उजरे भाव अज्ञान, उजरे जिहँ तें बंधे थे।
उजरे निरखे भान, उजरे चारहु गतिन तें ॥६॥" 'ब्रह्म विलास' अनुप्रासकी छटासे तो व्याप्त ही है। कई भापाओंके ज्ञाता होनेसे 'भैया'का शब्दज्ञान परिपुष्ट था। उसीके बलपर पदे-पदे अनुप्रासका सौन्दर्य बिखर सका । सबसे बड़ी बात है उसकी स्वाभाविकता। केगवकी भांति प्रयत्नपूर्वक खींचतान नहीं है। इसी कारण कृत्रिमता नही है। सहज गति है। ऐसे ही अनुप्रासोंके निर्झरसे जब वीररस फनफनाकर बह उठता है, तो चित्र-सा खिच जाता है, "अरिन के ठट्ट दह वट्ट कर डारे जिन, करम सुमन के पट्टन उजारे हैं। नर्क तिरजंच चट पट्ट देके बैठ रहे, विषेचौर झट्ट झट्ट पकर पछारे हैं। मौ बन कटाय डारे भट्ट मद दुट्ठ मारे, मदन के देश जारे क्रोध हु संहारे है। चढ़त सम्यक्त सूर बढ़त प्रताप पूर, सुख के समूह भूर सिद्ध के निहारे हैं।
चित्रबद्ध कविता 'ब्रह्मविलास' के पृ० २९२ से ३०४ तक संकलित है । उसमे १. यमकके लिए परमात्मशतकके ३-१५, २०, २५, २६, ४० और ४१वें दोहोंको
देखिए ब्रह्मविलास, पृष्ठ २७६-२८५ । २. "हे आत्मन् ! अज्ञान भाव । ( उजरे ) उजड़े अर्थात् विनाशको प्राप्त हुए, जिनसे आत्मा ( उजरे ) उजले अर्थात् प्रगट रूपसे बन्द हो रहा था। और जब ज्ञानसूर्य (उजरे ) उज्ज्वल देखे गये, तब चारों गतियोसे उजरे अर्थात् छूटे, जिसका अर्थ है सिद्धावस्थाको प्राप्त हुए।" ब्रह्मविलास, परमात्मशतक, पद्य ६, हिन्दी अनुवाद, टिप्पणी, पृ० २७६ । ३. ब्रह्मविलास, फुटकर कवित्त, पृ० २७३ ।