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________________ ४२२ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि "सीमंतड सिंदूररेह मोतीसरि सारी ।” — नेमिनाथफागु किसी-किसीने 'इ' के स्थानपर, 'ए' का प्रयोग किया है । 'ए' विभक्ति अधिकांशतया कर्ताकारकमे प्रयुक्त हुई है । मेरुनन्दन उपाध्यायके 'अजित शान्तिस्तत्र' का एक पद्य इस कथनको पुष्ट करता है, “मंगल कमला कंदुए, सुख सागर पूनिम चंदुए । जग गुरु अजिय जिणंदुए, संतीसुर नयनाणंदुए - अजितशान्तिस्तवनम् हिन्दी कवियोने स्वार्थक प्रत्ययोंमे 'अ', 'रे' और 'डी' का अच्छा प्रयोग किया है। इनमें भी 'अ' का प्रयोग बहुत अधिक हुआ है। राजशेखरने 'कंचुक' को ' कंचुयउ', साधारुने 'चउत्थ' को 'चउत्थउ', पद्मतिलकने 'अवतरित' को 'अत्रयरियड', ईश्वरसूरिने 'अभिनव' को 'अहिनवउ' और 'समर्थ' को 'समरत्थ' लिखा है' । ये रूप स्वार्थक 'अ' प्रत्ययके कारण बने है । 'रे' और 'डी' का भी प्रयोग हुआ है, किन्तु बहुत कम । 'रे' का उत्तम प्रयोग वि० सं० १६००-१८०० के कवियोंमें देखा जाता है । विनयप्रभ उपाध्यायके एक पद्यमें 'रे' का प्रयोग हुआ है, "भरह - वित्तंमि सिरि-कुंथ-चर- अंतरे जम्म पुंडरिगणी विजय पुक्खलवरे ॥" - सीमन्धर स्वामी स्तवन भट्टारक शुभचन्द्रने 'रे' और 'डी' का एक ही पद्य में प्रयोग किया है, " रोग रहित संगीत सुखी रे, संपदा पूरण ठाण । धर्मं बुद्धि मन शुद्धिडी, दुलहा अनुक्रमि जाण ॥' — तत्त्वसारदूहा १. मरगद जादर कंचुयड फुड फुल्लह माला, राजशेखर, नेमिनाथफागु । अभिनंदनु चउत्थड वर्तयड, साधारु, प्रद्युम्नचरित्र | सुरण अगणिहिं णाह अम्हहं अवयरियउ, पद्मतिलक, गर्भविचारस्तोत्र । अहिनवड जाण कि मग: समरत्थ साहस धीर, ईश्वरसूरि, ललितांगचरित्र । इन सबके लिए, देखिए इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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