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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
"सीमंतड सिंदूररेह मोतीसरि सारी ।”
— नेमिनाथफागु
किसी-किसीने 'इ' के स्थानपर, 'ए' का प्रयोग किया है । 'ए' विभक्ति अधिकांशतया कर्ताकारकमे प्रयुक्त हुई है । मेरुनन्दन उपाध्यायके 'अजित शान्तिस्तत्र' का एक पद्य इस कथनको पुष्ट करता है,
“मंगल कमला कंदुए, सुख सागर पूनिम चंदुए । जग गुरु अजिय जिणंदुए, संतीसुर नयनाणंदुए
- अजितशान्तिस्तवनम्
हिन्दी कवियोने स्वार्थक प्रत्ययोंमे 'अ', 'रे' और 'डी' का अच्छा प्रयोग किया है। इनमें भी 'अ' का प्रयोग बहुत अधिक हुआ है। राजशेखरने 'कंचुक' को ' कंचुयउ', साधारुने 'चउत्थ' को 'चउत्थउ', पद्मतिलकने 'अवतरित' को 'अत्रयरियड', ईश्वरसूरिने 'अभिनव' को 'अहिनवउ' और 'समर्थ' को 'समरत्थ' लिखा है' । ये रूप स्वार्थक 'अ' प्रत्ययके कारण बने है ।
'रे' और 'डी' का भी प्रयोग हुआ है, किन्तु बहुत कम । 'रे' का उत्तम प्रयोग वि० सं० १६००-१८०० के कवियोंमें देखा जाता है । विनयप्रभ उपाध्यायके एक पद्यमें 'रे' का प्रयोग हुआ है,
"भरह - वित्तंमि सिरि-कुंथ-चर- अंतरे
जम्म पुंडरिगणी विजय पुक्खलवरे ॥"
- सीमन्धर स्वामी स्तवन भट्टारक शुभचन्द्रने 'रे' और 'डी' का एक ही पद्य में प्रयोग किया है, " रोग रहित संगीत सुखी रे, संपदा पूरण ठाण । धर्मं बुद्धि मन शुद्धिडी, दुलहा अनुक्रमि जाण ॥'
— तत्त्वसारदूहा
१. मरगद जादर कंचुयड फुड फुल्लह माला,
राजशेखर, नेमिनाथफागु ।
अभिनंदनु चउत्थड वर्तयड,
साधारु, प्रद्युम्नचरित्र |
सुरण अगणिहिं णाह अम्हहं अवयरियउ, पद्मतिलक, गर्भविचारस्तोत्र ।
अहिनवड जाण कि मग: समरत्थ साहस धीर, ईश्वरसूरि, ललितांगचरित्र ।
इन सबके लिए, देखिए इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय ।