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________________ जैन भक्ति काव्यका कला-पक्ष ४२३ जैन हिन्दी के किसी कविने स्वार्थक प्रत्यय 'अल', 'इल्ल' और 'उल्ल' का कहीं पर भी प्रयोग नहीं किया है । अपभ्रंश ह्रस्व और दीर्घके व्यत्ययका नियम था । इसका अर्थ है कि के स्थानपर दीर्घ, और दीर्घके स्थान र हस्व सकता है | अपभ्रंशको ह्रस्वान्त है । जहाँ ह्रस्वको दीर्घ हुआ है, वह स्वार्थक प्रत्ययके ही कारण आचार्य हेमचन्द्रने मध्य और अन्तमे ह्रस्वको दीर्घ किया है, जैसा कि 'भल्ला हुआ जो मारिआ' - जैसे प्रयोगोंसे स्पष्ट ही है । यह प्रवृत्ति जैन हिन्दी काव्यमें भी उपलब्ध होती है, एक उदाहरण देखिए, 6 मणु तणु चरणु एकंतु करवि निसुणड मो भविया । जिमि निवसइ तुम्ह देहि गहि गुण गण गहगहिया ॥" पादमध्यमे भी ह्रस्वको दीर्घ करनेके दृष्टान्त मिलते हैं । ब्रह्मजिनदासने लिखा है, "पटक स्वामी थापी पाये धर्माधर्म वीचार तो ।" कवि ठकुरसोने लिखा है, " रयणि पडीतो संकुड्यो नीसरि सक्यौ न मृदु " - आदिपुराण -पंचेन्द्रिय बेल लावण्यसमयने भी पादमध्यमें ही ह्रस्व को दीर्घ किया है, "सुणि भवीक्षण जब वीरजिण, पामिड शिवपुर हाउ ॥ " - सिद्धान्त चौपई जैन हिन्दीमें प्रारम्भिक ह्रस्वको दीर्घ करनेका दृष्टान्त नहीं मिलता है । संदेशरासकमें भले ही 'प्रसाधन' को 'पासाहण' किया गया हो किन्तु जैन - हिन्दी में तो 'प्रणाशित' को 'पणासिय' और 'प्रसीद' को 'पसीउ' और ' प्रसादित' को 'पयासिय' देखा जाता है ।" मेरुनन्दन उपाध्याय, सीमन्धर जिनस्तवनम् । गुरु गौतम मो दिउं पसीउ, चतरुमल, नेमीश्वर गीत । जेण पयासिय वेदइ चारि, विद्धरण, ज्ञानपंचमी चउपई, देखिए इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । १. विनयप्रभ उपाध्याय, गौतमरासा, पहला पथ, हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, बम्बई, १६१७ ई०, पृ० ३२ ॥ २. निम्मल ए गंगतरंगचंगु पणासिय सयलतमु,
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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