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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
'कर्म'से 'कम्म' कर देनेको परम्परा अपभ्रंशको प्राकृतसे मिली थी। जैन हिन्दीके इस युगमे भी 'कम्म' - जैसे प्रयोगोंकी अधिकता है। 'कम्म' तो सैकड़ो स्थानोंपर प्रयुक्त हुआ है। इसके अतिरिक्त राजशेखरसूरिने 'कर्ण' को 'कन्नि', विनयप्रभने 'क्षेत्र' को 'खित्ति', 'विद्या' को 'विज्जा', 'निद्रा' को 'निद्दा', 'विप्र' को 'विप्प', मेरुनन्दनने 'समर्थ' को 'समत्त्थु,' 'हस्त' को 'हत्त्थु', ईश्वरसूरिने 'पुत्र' को 'पुत्त', 'दुर्ग' को 'दुग्ग' और 'स्वर्ग को 'सग' लिखा है। ____ आभ्रंशमे अनुस्वारकी प्रवृत्ति भी बहुत प्रचलित थी। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदीने इसके तीन कारणोंकी उद्भावना की है - (१) संस्कृतको गमकके लिए, (२) छन्दकी पादपूर्तिके लिए, (३) एकाध मात्राको कमीको पूरा करनेके लिए। जैन हिन्दी साहित्यमे अनुस्वारोंका अधिकांश प्रयोग लयके सौन्दर्यका निर्वाह करनेके लिए किया गया है । मेरुनन्दनका एक पद्य देखिए -
"अह सयल लक्खणं जाणि सुवियक्खणं, सूरि दळूण समरं कुमारं भविय तुह नंदणो नयण आणंदणो, परिणओ अम्ह दिक्खाकुमारि ॥"
-जिनोदयसूरिविवाहलउ अपभ्रंशमे पदान्तके 'ओकार' को ह्रस्वके रूपमे पढ़नेकी प्रवृत्ति थी। 'पुरातन प्रबन्ध संग्रह' में ऐसे अनेक उदाहरण है। जैन हिन्दीका भक्ति-युग इस प्रवृत्तिको अपनाने में सबसे आगे रहा है। राजशेखरसूरिका निम्नाकित पद्य इसका दृष्टान्त है,
"नरतिय कज्जलरेह नयणि मुहकमलि तंबोलो। नागोदर कंठलउ कंठि-अनुहार विरोलो।"
-नेमिनाथ फागु इसके अतिरिक्त विनयप्रभके 'वीरजिणेसर चरण कमल कमलायकवासो' में, श्री गुणसागरके 'उपसमै संक विकट कष्टक दुरित पाप निवारणो' मे और ब्रह्मजिनदासके 'आदि जिणेसर भुवि परमेसर सयल दुख विणासणी' मे भी यह प्रवृत्ति ही परिलक्षित होती है। ___ जैन हिन्दीके इस युगमें, 'गुरु स्वर' को लघु बनाने के भी अनेक दृष्टान्त है । विनयप्रभने 'श्री इन्द्रभूति', को 'सिरि इंदभूइ' और मेरुनन्दनने भी 'श्री' को १. डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्यका आदिकाल, द्वितीय व्याख्यान,
पृ० ४५। २. देखिए, इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय ।