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जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष
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'सिरि' लिखा है। ईश्वरसूरिने 'श्रीमाल' को 'सिरिमाल', 'ललितांग' को 'ललिअंग', राजशेखरने 'फूलहँ' को 'फुल्लह', 'नयने' को 'नयणि' और 'कर्णे' को 'कन्नि' लिखा है। मेरुनन्दनने 'दीक्षाकुमारी' को दिक्खाकुमारि' कहा है।' __ अपभ्रंशमे दीर्घ स्वरको लघु बनानेकी दो प्रक्रियाएँ प्रचलित थीं : पहली संयुक्त वर्णोमे-से एकको रखकर, पूर्ववर्ती स्वरको लघु बनानेसे सम्बन्धित थी। यह प्रवृत्ति जैन हिन्दोके इस युगमे पायो जाती है। विद्धणू' और 'साधार' दोनों ही ने 'अष्टदल' के स्थानपर 'अठदल' लिखा है। 'अष्ट' मे अ दीर्घ स्वर था, किन्तु 'अठ' में ह्रस्व हो गया। इसी भांति मेरुनन्दन उपाध्यायने भी अमृतके स्थानपर 'अमिय' का प्रयोग कर अ को ह्रस्व किया है। 'चक्रेसरी' को 'चकेसरी' और 'सरस्वती' को 'सरसई' करनेसे 'च' और 'र' ह्रस्व बने है।
दूसरी प्रक्रिया संयुक्तवर्णोको पृथक्-पृथक् करके पूर्व स्वरको लघु बनानेके रूपमे प्रचलित थी। राजशेखरने 'शुक्ल' को 'सुकिल' और 'कस्तूरी' को 'कसतूरी' करके 'सु' और 'क' को ह्रस्व किया है। साधारुने 'पद्मावती' को 'पदमावती' तथा 'दर्शन' को 'दरसन' करके 'य' और 'द' को ह्रस्व बनाया है।
परवर्ती वर्णको द्वित्व करके पूर्ववर्ती लघुस्वरको गुरु कर देनेकी प्रथा
१. इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । २. अठदल कमल ऊपनी नारि,
विद्धरण, ज्ञानपंचमी चउपई। अठदल कमल सरोवर वासु,
साधारु, प्रद्युम्न चरित्र । ३. जय सरस अमिय रस सरिसवयण !
मेरुनन्दन उपाध्याय, सीमन्धर जिन स्तवनम् । ४. पदमावती दंड कर लेइ, जाला मुखी चकेसरी देइ ।
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हंसी चढ़ीकर लेखणि देइ, कवि सधार सरसई पभणेई ।
___ साधार, प्रद्युम्न चरित्र। ५. सावण सुकिल छट्टि दिणि बावीसमउ जिणंदो।
x खूप भराविउ जाइ कुसुमि कसतूरी सारी।। राजशेखर, नेमिनाथ फागु, हिन्दी काव्यधारा, पृ० ४८० । ६. देखिए, इसी ग्रन्थ का दूसरा अध्याय ।