________________
हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि भी बहुत थी । यह कार्य छन्द-सौकर्यके लिए ही किया जाता था। रत्नावलीमे 'परवश.' को 'परब्वगः' और 'सन्देश रासक' में 'चिरगतः' को 'चिरग्गयः' किया गया है। जैन हिन्दीमे समर्थके स्थानपर 'समरथ' हो जाना तो स्वाभाविक है, किन्तु उसका 'समरत्त्थ' हो जाना उपर्युक्त प्रवृत्तिको ही स्पष्ट करता है' कवि ठकरसीने भी 'भखै' 'रखै' के स्थानार 'भक्खै' और 'रक्खै' का प्रयोग किया है। ___ अपभ्रंशमें वर्णोके संकोचनका कौशल अपनाया जाता था। 'सन्देशरासक'मे "सह आर' का 'सहार', 'ढोला मारू रा दूहा'मे 'मयूर'का 'मोर', और हेमचन्द्र के व्याकरणमे 'अरण्य' का 'रण्ण' पाया जाता है। जैन हिन्दीके इस युगमे भी यह प्रवृत्ति दिखाई देती है। श्री विद्धणूने 'श्रुत' के स्थानपर 'सिय', राजशेखरने 'वात्रोसमउ'के स्थानपर 'सव', साधारुने 'प्रणाम करूं'के स्थानपर 'पण', मेरुनन्दनने 'मयूर' के स्थानपर 'मोर', और भट्टारक शुभवन्द्रने 'स्थान'के स्थानपर 'ठाण' का प्रयोग किया है। ___ नवी शताब्दीसे अपभ्रंशमे, संस्कृत के तत्सम शब्दोंका प्रवेश बढ़ने लगा। श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरीकी दृष्टिमे यह कार्य सातवी शताब्दीसे ही प्रारम्भ हो गया था। श्री राहुल सांकृत्यायन चौदहवी शताब्दीसे मानते है । उनका कथन है कि क्रिया और विभक्तियाँ तो वह ही रहीं, किन्तु तद्भव शब्दोके स्थानपर तत्समका प्रवेश होने लगा। जैन हिन्दीके १४००-१६०० वि० सं० वाले युगमें, तत्सम शब्दोका प्रयोग अत्यल्प दिखाई देता है। फिर भी क्रिया और विभक्तियोंके विकसित रूपके कारण वह हिन्दी ही है, अपभ्रंश नही। केवल तत्सम शब्दोंके प्रयोगसे अपभ्रंश हिन्दी नही हो जाती, अपितु क्रिया, शब्द और विभक्ति सभीके सम्मिलित विकासने अपभ्रंश को हिन्दी बनाया है। जैन कवियोंके कतिपय उदाहरण यह सिद्ध करनेमें समर्थ है,
१. समरत्थ साहस धीर, श्री पातसाह निसीर ।
ईश्वरसूरि, ललितांगचरित्र। २. कदे न खाइ तंबोलु सरसु भोजनु नहिं भक्खै ।
कदे न कापड नवा पहिरि काया सुखि रक्खै । ठकरसी, कृपण चरित्र, छठा पद्य, अनेकान्त, वर्ष १४, किरण १, पृ० ११ । ३. देखिए, इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । ४. राहुल सांकृत्यायन, हिन्दी काव्यधारा, प्रथम संस्करण, १६४५, अवतरणिका, पृ१००।