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जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष
राजशेखर सूरि ( वि० सं० १४०५) "नवरंगी कुंकुमि तिलय किथ रयणतिलउ तसु माले । मोती कुण्डल कन थिय बिंबालिय कर जाले ॥"
-नेमिनाथ फागु विनयप्रभ उपाध्याय (वि० सं० १४०५) "मणु तणु चरणु एकंतु करवि निसणउ भो भविया । जिम निवसइ तुम्ह देहि गेहि गुण गण गहगहिया ॥"
-गौतमरासा विद्धणू (वि० सं० १४२३) "पढहु गुणहु पूजहु निसुनेहु । खियपंचमिफलु कहियउ एहु ॥"
-ज्ञानपंचमी चउपई ईश्वरसूरि (वि० सं० १५६१) "इय पुण्य चरिय प्रबंध, ललिअंग नृप संबंध । पहु पास चरियह चित्त, उद्धरिय एह चरित्त ॥"
-ललितांगचरित्र मुनि विनयचन्द्र (वि० सं० १५७६ ) "पणविवि पंच महागुरु, सारद धरिवि मणे । उदयचंदु मुणि वंदिवि, सुमरिवि वाल मुणे ॥"
-निर्भरपंचमी विधानकथा जैन हिन्दीके इस युगमे तद्भव रूपोके अधिक होते हुए भी तत्समकी झलक दिखाई देने लगी थी। विनयप्रभके गौतमरासामे 'मयण'के स्थानपर 'मदन' का प्रयोग भले ही न हुआ हो, किन्तु 'रूविहि' को 'रूपिहि' कर दिया गया है । विद्धणूने 'अमृत' के स्थानपर 'अभिय' का प्रयोग भले ही, किया हो, किन्तु 'नमस्कार' जैसे तत्सम शब्दका भी उपयोग किया है। ईश्वरसूरिने 'चरिय'
और 'चरित्र' दोनों ही को लिखा है। मेरुनन्दन उपाध्यायने 'कमल' और 'विलसंत' जैसे शब्दोका भी प्रयोग किया है। यद्यपि कवि ठकरसीकी कविताओंमे तद्भवजन्य सौन्दर्य ही अधिक है, किन्तु कही-कहींपर 'अतिघ्राण', 'कमल', 'रवि' और 'ज' का भी प्रयोग हुआ है। ___ इस युगके भट्टारकोकी भाषा तत्समप्रधान है। इसका कारण है कि वे संस्कृतके बहुत बड़े विद्वान् होते थे। उन्होंने अधिकांशतया संस्कृतमे ही लिखा है। भट्टारक सकलकोतिकी कवितामें तत्सम शब्दोकी अधिकता है,