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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
"श्री जिनवर वाणी नमेवि, गुरु निर्गन्ध पाय प्रणमेव । कहुं आराधना सुविचार, संक्षेपि सारोद्धार ॥ "
भट्टारक शुभचन्द्र,
- श्राराधना प्रतिबोध सार
भट्टारक ज्ञानभूषण,
"आहे प्रणमीय भगवति सरसति जगति विवोधन माय ।" -श्रादीश्वर फाग
"कर्म कलंक विकारनो रे, निःशेष होय विनाश ।"
—तत्वसार दूहा
afa राजमल्लके पिंगल शास्त्रमें तत्सम रूपोंकी ही प्रधानता है । इसका एक उदाहरण है,
"स्वति बुंद सुर वर्ष निरंतर, संपुट सीपि धमो उदरंतर । जम्मी मुक्ताहल मारहमळ, कंठाभरण सिरी अवलोवल ॥ "
इन उपर्युक्त दृष्टान्तोंसे श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरीके इस कथनका समर्थन होता है कि - जैन लोग संस्कृत शब्दोंका बहिष्कार अवश्य करते रहे, किन्तु वे आते ही गये ।
जैन हिन्दी के इस युगपर गुजराती और राजस्थानीका भी प्रभाव है । उस समय हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी में विशेष अन्तर नहीं था । राहुलजीका मत है कि वे अपभ्रंशसे विकसित ही हुई थीं, उनके मूल रूपोंमे भेद नहीं था । उनकी दृष्टिमें गुजरात तेरहवीं शतीतक हिन्दी क्षेत्रका अभिन्न अंग रहा है। ढोलामारू रा दूहा सम्पादक भी उस समयकी हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी मे इतना रूपभेद नहीं मानते जितना कि आज-कल है। फिर भी यह सिद्ध है कि उनमे कुछ-न-कुछ रूपभेद था अवश्य, जिससे उनका होता है ।
पृथक् अस्तित्व प्रमाणित
वि० सं० १४००-१५०० के हिन्दी कवियोंमें राजशेखरसूरि, साधारु, विद्धणू और मेरुनन्दनपर राजस्थानीका प्रभाव है, तो विनयप्रभ उपाध्याय, सोमसुन्दर सूरि, उपाध्याय जयसागर, दयासागर सूरि, हीरानन्दसूरि और भट्टारक सकल - कीर्तिपर गुजरातीका |
१. हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९४७ ई०, पृ० ३६ |
२. राहुल सांकृत्यायन, हिन्दी काव्यधारा, अवतरणिका, पृ० १२ ।
३. हिन्दी साहित्यका आदिकाल, प्रथम व्याख्यान, पृ० 8 से उद्धृते ।