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जैन भक्ति काव्यका कला-पक्ष
वि० सं० १५००-१६०० के कवियोंमे पद्मतिलक, मुनि चरित्रसेन, चेतरुमल, मुनि विनयचन्द्र ठकरसी और कवि हरिचन्द, राजस्थानीसे प्रभावित है, तो ब्रह्म जिनदास, लावण्यसमय, संवेगसुन्दर, सिंहकुशल, ईश्वरसूरि, भट्टारक शुभचन्द्र, और देवकलशकी रचनाओंमे गुजरातीकी झलक है ।
वि० सं० १६००-१८०० के जैन हिन्दी कवियोंकी भाषा
यह युग हिन्दी के पूर्ण विकासका युग है । इसमे अधिकांशतया तत्सम शब्दों का प्रयोग होने लगा । क्रियाओंका भी विकास हुआ। उकार बहुला प्रवृत्ति हट गयी । विभक्तियोने घिसकर स्वतन्त्र शब्दोंका रूप धारण कर लिया । कर्ताकी 'ने' और कर्मकी 'को' विभक्तियाँ स्पष्ट दिखाई देने लगीं ।
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भाषा की दृष्टिसे इस युगकी रचनाओंको दो भागोंमे बाँटा जा सकता है - एक तो वे, जो संस्कृतका अनुवाद मात्र है, और दूसरी वे जो नितान्त मौलिक हैं । अनूदित कृतियोंमे संस्कृतनिष्ठा अधिक है, जब कि मौलिकमे सरलता । कवि बनारसीदासने सोमप्रभाचार्य की 'सूक्ति मुक्तावली' के ५८वें पदका अनुवाद किया है,
" पूरन प्रताप रवि, रोकिबे को धाराधर
सुकृति समुद्र सोखिबे को कुम्भनद है 1 कोप दव पावक जनन को अरणि दारु,
मोह विष भूरुह को, महादृढ़ कंद्र है ॥""
इन्हीं कविको 'अध्यात्म पदपंक्ति, ( मौलिक ) के सातवें पदकी कतिपय पंक्तियाँ इस प्रकार है,
"ऐसें यों प्रभु पाइये, सुन पंडित प्रानी ।
ज्यों मथि माखन काढिये, दधि मेलि मथानी ॥
ज्यों रस लीन रसायनी, रसरीति अराधे |
त्यों घट में परमारथी, परमारथ "साधै ॥ कवि भूधरदामने वादिराजसूरि के 'एकीभाव स्तोत्र' के छठे श्लोकका अनुवाद निम्न प्रकारसे किया है,
"भव वन में चिरकाल भ्रम्यो कछु कहिय न जाई ।
तुम थुति कथा पियूष वापिका भागन पाई ॥
१. बनारसी विलास, जयपुर, पृ० ४६ । २. वही, पृ० २२६ ॥
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