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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि शशि तुषार धनसार हार शीतल नहिं जा सम।
करत न्हौंन तामहिं क्यों न भवताप बुझे मम ॥"' इन्हीं कविके 'भूधर विलास' का एक मौलिक पद देखिए, "गरव नहिं कीजै रे, ऐ नर निपट गंवार।
झूठी काया मुठी माया, छाया ज्यौं लखि लीजै रे ॥" इसी भांति पाण्डे हेमराजके 'भाषा भक्तामर' और 'उपदेशदोहा शतक', तथा भैया भगवतीदासके 'द्रव्य संग्रह' और फुटकर रचनाओंकी भाषामे अन्तर है।
इस युगके कवियोंने वि० सं० १४००-१६०० को 'रे' और अनुस्वारवाली प्रवृत्ति विरासतके रूपमें पायी है। 'रे' के प्रयोगसे संगीतात्मकतामे वृद्धि हुई है, और ध्वनि सौन्दर्य भी बढ़ा है। श्री कुशललाभका एक पद्य देखिए, "आग्यो मास असाढ़ अबूके दामिनी रे।
जोवइ जोवइ प्रीयडा वाट सकोमल कामिनी रे ।। चातक मधुरइ सादिकि प्रीऊ प्रीऊ उच्चरइ रे ।
__ वरसइ घण वरसात सजल सरवर भरइ रे ॥" भैया भगवतीदासने 'री' का प्रयोग उत्तम ढंगसे किया है,
"अचेतन की देहरी न कीजे तासों नेहरी,
ओगुन की गेहरी परम दुख भरी है। याही के सनेहरी न पावें कम छेह री सु,
पार्वे दुख तेहरी जे याकी प्रीति करी है॥"" द्यानतरायके 'पार्श्व-स्तोत्र'में अनुस्वारका सफलतापूर्वक प्रयोग हुआ है। यहाँ यह स्पष्ट है कि अनुस्वारका प्रयोग छंदसौकर्य अथवा संस्कृतकी छौंकके लिए नहीं, अपितु ध्वनि-सौन्दर्यके लिए हुआ है । 'पार्श्वस्तोत्र'का एक पद्य देखिए,
"नरेन्द्रं फणीन्द्रं सुरेन्द्रं अधोसं । शतेन्द्रं सु पूर्जे मजै नाय शीशं ।। मुनीन्द्रं गणेन्द्रं नमो जोडि हाथं ।
'नमो देवदेवं सदा पार्श्वनाथं ॥" १. बृहज्जिनवाणी संग्रह, सम्राट संस्करण, १९५६ ई०, पृ० २४७ । २. भूधरविलास, कलकत्ता, ११वाँ पद, पृ०७। ३. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ० ११६ । ४, भैया भगवतीदास, ब्रह्मविलास । ५. भूधरदास, पार्श्वनाथ स्तोत्र, पहला पद्य, बृहज्जिनवाणी संग्रह, १९५६ ई०,
पृ० २८६