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जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष
कवि बनारसीदासके पहले ही आगरा हिन्दी कवियों का केन्द्र था । आगरा यदि एक ओर राजस्थानसे सम्बन्धित है, तो दूसरी ओर ब्रजभूमिसे, अत: वहाँके कवियोंपर दोनों ही का प्रभाव है । इसके अतिरिक्त उनपर अरबीफ़ारसीका प्रभाव भी अनिवार्य था, क्योंकि आगरा बादशाहोंकी राजधानी थी । पाण्डे रूपचन्दके 'परमार्थी दोहाशतक' में ब्रजभाषाका पुट है, तो 'नेमिनाथरासा' मे राजस्थानीकी झलक, और 'मंगलगीत प्रबन्ध' शुद्ध खड़ी बोलीका निदर्शन हैं । उनकी रचनाओंमें अरबी-फ़ारसीके शब्द नहीं है, क्योंकि वे आगरेमें बहुत कम रहे, इसके अतिरिक्त वे संस्कृत - प्राकृतके प्रकाण्ड पण्डित थे ।
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कवि बनारसीदासकी भाषा शुद्ध खड़ी बोलीपर आधारित है । उसपर राजस्थानीका प्रभाव नहीं है, किन्तु कारक रचनामे ब्रजकी विशेषता पायी जाती है । उनकी भाषापर उर्दू-फारसीका प्रभाव है । डॉ० हीरालाल जैनका कथन है कि बनारसीदासजीने ब्रजभाषाकी भूमिका लेकर उसपर मुग़लकालमें
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बढ़ते हुए प्रभाववाली खड़ी बोलीका प्रयोग किया है। बनारसीदासके समकालीन और उनके एकचित्त मित्र कुँअरपालकी भाषापर राजस्थानीका स्पष्ट
प्रभाव है । उनके 'चौबीस ठाणा' का एक पद्य देखिए, "बंदौ जिनप्रतिमा दुखहरणी ।
आरंभ उदौ देख मति भूलौ, ए निज सुध की धरणी ॥ बीतरागपद कूं दरसावइ, मुक्ति पंथ की करणी । सम्यगदिष्टी नितप्रति ध्यावइ, मिथ्यामत की टरणी ॥ *
इस युग मे 'श' और 'स' दोनों ही प्रयोग देखे जाते है, किन्तु 'स' की अधिकता है । पाण्डे रूपचन्दने 'सोभा', 'दर सिनु', 'सुद्ध' और 'जिनसासन' का प्रयोग किया है । कवि बनारसीदासकी रचनाओमें 'अविनासी', 'सुद्ध', 'सिवरूप', 'दरसन' और 'सरन' जैसे अनेक शब्द है, जिनमे 'श' के स्थानपर 'स' का प्रयोग हुआ है । कुँअरपालने भी 'सुद्ध', 'सुजस' और 'दरसन' में 'स' को ही अपनाया है । द्यानतरायने भी 'दरसन', 'सिरीपाल' और 'परमेसुर' का ही प्रयोग किया है । किन्तु इन सबकी रचनाओमें यत्र-तत्र श का प्रयोग भी देखनेको मिलता है । कवि बनारसीदास के 'नाटक समयसार' की 'उदै बल जोर यह
१. डॉ० हीरालाल जैन, अर्धकथानककी भाषा, अर्धकथानक, पं० नाथूराम प्रेमी सम्पादित, संशोधित संस्करण, १६५७ ई०, हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर लिमिटेड, बम्बई, पृ० १६ ।
२. अर्धकथानक, संशोधित संस्करण, बम्बई, १० १०२ ।