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जैन भक्ति काव्यका कला-पक्ष
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'दुहिउ', और ईश्वरसूरिने 'ललितांग' को 'ललिअंग' लिखा है ।
'हि' और 'हि' विभक्ति, जो पहले अपभ्रंशमे केवल करण और अधिकरण कारक के बहुवचनमे हो प्रयुक्त होती थी, आगे चलकर प्रायः सभी कारकोंकी विभक्ति बन गयी, मेरुनन्दन उपाध्यायने उसका प्रयोग कर्ता कारकमे किया है - " इम भगसिहिं मोलिम तणीए ।
सिरि अजिय संति त्रिण थुइ भणिए ॥”
- श्रजितशान्तिस्तवनम् ब्रह्मजिनदासने 'हि' का प्रयोग कर्मकारकमें किया है । वह इस प्रकार है,
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"जिनवर स्वामी मुगतिहिं, गामी सिद्धि नयर मंडणो ।”
- मियां हुकड़ा कवि हरिचन्दने भी 'हि' को कर्मकारककी विभक्तिके रूपमे ही स्वीकार किया है,
"गुरु मत्तिए सरसइहिं पसाएं ।"
-- श्रनस्तमितव्रत सन्धि मुनि विनयचन्दने इस विभक्तिका प्रयोग, परम्परा के अनुसार अधिकरण कारकमे ही किया है,
"पढम परिक दुइ जहिं आसाढहिं, रिसह गन्भुतहि उत्तरसाढहिं । अंधारी छ तहिमि, वंदमि वासुपूज गब्भुच्छउ ॥'
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-- पंचकल्याणकरासा मुनि विनयप्रस उपाध्यायने भी, 'हिं' को अधिकरणका चिह्न माना है, "सात हाथ सुप्रमाण देह रूपहिं रंभावरु ।"
गौतम रासा
हिन्दी में कही-कहीं पर 'हि' के 'ह' का लोप कर केवल 'इ' का प्रयोग देखा जाता है । राजशेखरसूरिने लिखा है कि राजीमनी के सीमन्त में मोतीचूर्णसे युक्त सिन्दूरकी रेखा सुशोभित थी,
१. जो नर करइ सो दुहिउ न होइ
विद्ध, ज्ञानपंचमी चउपई ।
ललियंग कुमरचरियं ललणा ललियन्त्र निसुणेह
ईश्वरसूरि, ललितांगचरित्र ।
इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय ।
२. सभी उदाहरणों के लिए, इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय देखिए ।
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