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जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष
भाषा
भाषाकी दृष्टि से जैन हिन्दीके भक्ति-काव्यको दो कालोंमें बांटा जा सकता है -एक तो वि० सं० १४००-१६००, दूसरा वि० सं० १६००-१८०० । पहला काल अपभ्रंशके अधिक निकट है। इसका अर्थ है कि इस युगकी हिन्दीमे अपभ्रंशकी विशेषताएं पायी जाती है। वह अपभ्रंशका ही विकसित रूप है । अपभ्रंशको उकारबहुला प्रवृत्ति यहां भी प्रतिष्ठित है। कृदन्त तद्भव क्रियाओके रूप उकारान्त है, और कर्ता तथा कर्मकारकको विभक्तिके रूपमे भी 'उ' का प्रयोग हुआ है । उनके दृष्टान्त निम्न प्रकार है',
क्रिया
"तउ रूपिणि मन विभउ भयउ, एते ब्रह्मचारि तहां गयउ॥"
-साधार, प्रद्युम्न चरित्र कर्ता
"ताण पुत्तु सिरि इंदभूइ भूवलयपसिद्धउ । चउदह विज्जा विविहरूप नारीरस विद्धड ॥"
-विनयप्रभ, गौतमरासा "गुरु गौतम मो देउं पसीउ,"
-चतरुमल, नेमीश्वर गीत इस युगको हिन्दीमें अपभ्रंशकी भांति ही व्यंजनोके स्थानपर स्वरके स्थापनकी प्रवृत्ति थी। राजशेखरसूरिने 'भ्रमाडई' के स्थानपर 'भमाउइका और 'चंपकगोरी'के स्थानपर 'चंपइगोरी'का प्रयोग किया है। विद्धणूने 'दुस्तर' को
१. इन उद्धरणों के लिए इस ग्रन्थका दूसरा अध्याय देखिए । २. बंकुडिया लीय भुंहंडियहं भरि भुवणु भमाउइ।
चंपइगोरी अइधोई आंगि चंदनु लेवउ । राहुल सांकृत्यायन, हिन्दी काव्यधारा, किताब महल, इलाहाबाद, प्रथम-संस्करण, १९४५ ई०, पृ०४८० ।