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________________ जन भक्ति-काव्यका भाव-पश्च ४१७ रह जाता है। भूधरदासजोने कहा है, "तोव्रगामो तुरंग, सुन्दर रंगोंसे रचे हुए रथ, ऊँचे-ऊंचे मत्त मतंग, दास और खवास, गगनचुम्बी अट्टालिकाएं और करोड़ोंकी सम्पत्तिसे भरे हुए कोश, इन सबको यह नर अन्तमे छोड़कर चला जाता है। प्रासाद खड़ेके खड़े ही रह जाते है, काम यहाँ ही पड़े रहते है, धन-सम्पत्ति भी यहाँ हो डली रहती है और घर भी यहां ही धरे रह जाते है।" "तेज तुरंग सुरंग भले रथ, मत्त मतङ्ग-उतङ्ग खरे ही। दास खवास अवास अटा, धन जोर करोरन कोश मरे ही ॥ ऐसे बढ़े तो कहा भयो है नर, छोरि चले उठि अन्त छरे ही। धाम खरे रहे काम परे रहे दाम डरे रहे ठाम धरे ही ॥" श्रीद्यानतरायने भो भगवान् जिनेन्द्रको शान्ति प्रदायक ही माना है। वे उनकी शरणमे इसलिए गये है कि शान्ति उपलब्ध हो सकेगी। उन्होंने कहा, "हम तो नेमिजीको शरणमे जाते है, क्योकि उन्हें छोड़कर और कहीं हमारा मन भी तो नहीं लगता। वे संसारके पापोंको जलनको उपशम करनेके लिए बादलके समान है। उनका विरद भी तारन-तरन है। इन्द्र, फणीन्द्र और चन्द्र भी उनका ध्यान करते हैं । उनको सुख मिलता है और दुःख दूर हो जाता है।" यहाँ बादलसे झरनेवाली शीतलता परम शान्ति ही है। शान्तिको ही सुख कहते है और वह भगवान् नेमिनाथके सेवकोंको प्राप्त होती ही है। द्यानतरायकी दृष्टिमे भी राग-द्वेष ही अशान्ति है और उनके मिट जानेसे ही 'जियरा सुख पावैगा', अर्थात् उसको शान्ति मिलेगी। अरहन्तका स्मरण करनेसे राग-द्वेष विलीन हो जाते है, अतः उनका स्मरण ही सर्वोत्तम है। द्यानतराय भी अपने बावरे मनको सम्बोधन करते हुए कहते है, "हे बावरे मन ! अरहन्तका स्मरण कर। ख्याति, लाभ और पूजाको छोड़कर अपने अन्तरमै प्रभुकी लौ लगा। तू नर-भव प्राप्त करके भी उसे व्यर्थमें ही खो रहा है और विषय-भोगोंको प्रेरणा दे-देकर बढ़ा रहा है। प्राणोंके जानेपर हे मनवा ! तू पछतायेगा। तेरी आयु क्षण-क्षण कम हो रही है। युवतीके शरीर, धन, सुत, मित्र, परिजन, गज, १. वही, ३१वॉ पद्य, पृष्ठ ११ । २. अब हम नेमिजी की शरन । और ठौर न मन लगत है, छाडि प्रभु के शरन । अब० ॥१॥ सकल भवि-अघ-दहन बारिद, विरद तारन तरन । इन्द चन्द फनिन्द ध्या, पाय सुख दुख हरन । अब० ॥२॥ द्यानत पदसंग्रह, कलकत्ता, पहला पद, पृष्ठ १।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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