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________________ ४१६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि कोई दिखाई नहीं देता। प्रातः ही जो राज-तस्तपर बैठा हुआ प्रसन्न वदन था, ठीक दोपहर के समय उसे ही उदास होकर वनमे जाकर निवास करना पड़ा। तन और धन अत्यधिक अस्थिर है, जैसे पानीका बताशा । भूधरदासजी कहते है कि इनका जो गर्व करता है उसके जन्मको धिक्कार है।" यह मनुष्य मूर्ख है, देखते हुए भी अन्धा बनता है। इसने भरे यौवनमे पुत्रका वियोग देखा, वैसे ही अपनी नारीको कालके मार्गमे जाते हुए निरखा, और इसने उन पुण्यवानोंको, जो सदैव यानपर चढे हो दिखाई देते थे, रंक होकर बिना पनहीके मार्गमे पैदल चलते हुए देखा, फिर भी इसका धन और जीवनसे राग नहीं घटा । भूधरदासका कथन है कि ऐसी सूसेको अंधेरोके राजरोगका कोई इलाज नही है। "देखो मर जोवन में पुत्र को वियोग आयो, तैसें ही निहारी निज नारी काल मग में । जे जे पुण्यवान जीव दीसत हैं यान ही पै, रंक भये फिरै तेऊ पनही न पग में । ऐते पै, अभागे धन जीतब सौं धरै राग, होय न विराग जाने रहंगो अलग मैं। आँखिन बिलोकि अंध सूसे की अंधेरी, करै ऐसे राजरोग को इलाज कहा जग में ॥" एक वृद्धपुरुषको दृष्टि घट गयो है, तनको छवि पलट चुकी है, गति बंक हो गयी है और कमर झुक गयी है। उसकी घरवाली भी रूठ चुकी है, और वह अत्यधिक रंक होकर पलंगसे लग गया है। उसकी नार (गर्दन) काँप रही है और मुंहसे लार चू रही है। उसके सब अंग-उपांग पुराने हो गये है, किन्तु हृदयमे तृष्णाने और भी नवीन रूप धारण किया है । जब मनुष्यकी मौत आती है, तो उसने संसारमे रच-पचके जो कुछ किया है, सब कुछ यहाँ ही पड़ा १. वही, हवाँ पद, पृष्ठ ६। २. जैन शतक, कलकत्ता ३५वाँ पद, पृष्ठ ११ । ३. दृष्टि घटी पलटी तन की छवि बंक भई गति लंक नई है। रूस रही परनी घरनी अति रंक भयो परियंक लई है ॥ कांपत नार बहै मुख लार महामति संगति छोरि गई है। अंग-उपंग पुराने परे तिसना उर और नवीन भई है। जैनशतक, कलकत्ता, ३८वाँ सवैया, पृष्ठ १२ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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