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________________ जैन भक्ति काव्यका भाव-पक्ष अर्थ है मोक्ष, जहाँ किसी प्रकारको आकुलता नही होती। ऐसो शान्ति वह ही दे सकता है, जिसने स्वयं प्राप्त कर ली है । वे संसारी 'साहिब', जो बारम्बार जनमते हैं, मरते हैं, और जो स्वयं भिखारी हैं, दूसरोंका दारिद्र्य कैसे हर सकते है । भगवान् 'शान्ति जिनन्द' जो स्वयं शान्तिके प्रतीक है, सहजमे ही अपने सेवको के भव-द्वन्द्वोंको हर सकते हैं । भूधरदास उन्ही से ऐसा करनेकी याचना भी करते हैं । यह जीव सांसारिक कृत्योके करनेमें तो बहुत ही उतावला रहता है, किन्तु भगवान्‌के सुमरनमें सीरा हो जाता है । जैसे कर्म करता है, वैसे फल मिलते है । कर्म करता है अशान्ति और आकुलताके, किन्तु फलमे शान्ति और निराकुलता चाहता है, जो कि पूर्णरीत्या असम्भव है । आक बोयेगा, आम कैसे मिलेंगे, नग हीरा नही हो सकता । जैसे यह जीव विषयोंके बिना एक क्षण भी नही रह सकता, वैसे ही यदि प्रभुको निरन्तर जपे तो सासारिक अशान्तिको पार कर निश्चय शान्ति पा सकता है । 3 ४१५ शन्तिभावको स्पष्ट करनेके लिए भूधरदासने एक पृथक् ही ढंग अपनाया है । वे सासारिक वैभवोंकी क्षणिकताको दिखाकर और तज्जन्य बेचैनीको उद्घोषित कर चुप हो जाते है और उसमे से शान्तिकी ध्वनि, संगीतकी झंकारकी तरहसे फूटती ही रहती है । धन और यौवनके मदमे उन्मत्त जीवोंको सम्बोधन करते हुए उन्होंने कहा, "ए निपट गंवार नर ! तुझे घमण्ड नही करना चाहिए । मनुष्यकी यह काया और माया झूठी है अर्थात् क्षणिक है । यह सुहाग और यौवन कितने समयका है, और कितने दिन इस संसारमे जीवित रहना है । हे नर ! तू शीघ्र ही चेत जा और बिलम्ब छोड़ दे । क्षण-क्षणपर तेरे बंध बढ़ते जायेंगे, और तेरा पल-पल ऐसा भारी हो जायेगा, जैसे भीगनेपर काली कमरी ।" भूधरदासने एक दूसरे पदमे परिवर्तनशीलताका सुन्दर दृश्य अंकित किया है। उन्होने कहा, "इस संसार मे एक अजब तमाशा हो रहा है, जिसका स्थायित्व काल स्वप्नकी भाँति है, अर्थात् यह तमाशा स्वप्नकी तरह शीघ्र ही समाप्त भी हो जायेगा । एकके घरमे मनकी आशाके पूर्ण हो जानेसे मंगल-गीत होते है, और दूसरे घरमे किसीके वियोगके कारण नैन निराशा से भर-भरकर रोते हैं । जो तेज तुरंगोंपर चढ़कर चलते थे, और खासा तथा मलमल पहनते थे, वे ही दूसरे क्षण नगे होकर फिरते हैं, और उनको दिलासा देनेवाला भी १. भूधरदास, भूधर विलास, कलकत्ता, ५३वाँ पद, पृ० ३० । २. वही, ३४वॉ पद, पृष्ठ १६ । ३. वही, २२खाँ पद, पृष्ठ १३ | ४. वही, ११वॉ पद, पृष्ठ ७
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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