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________________ ४१४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अशान्तिके कारण है और वे भगवान् जिनके ध्यानसे जीते जा सकते है। तभी यह जोव उस शान्तिका अनुभव करेगा, जो भगवान् जिनेन्द्रमे साक्षात् ही हो उठी थी। भैयाका स्पष्ट अभिमत है कि राग-द्वेषमे प्रेम करनेके ही कारण यह जीव अपने परमात्म-स्वरूपके दर्शनोंका आनन्द नही ले पाता। अर्थात् वह चिदानन्दके सुखसे दूर ही रहता है । राग-द्वेषका मुख्य कारण है मोह, इसलिए मोहके निवारणसे राग-द्वेष स्वयं नष्ट हो जायेंगे, और राग-द्वेषोंके टलनेसे मोह तो यत्किचित् भी न रह पायेगा। कर्मकी उपाधिको समाप्त करनेका भी यह ही एक उपाय है। जडके उखाड डालनेसे भला वृक्ष कैसे ठहर सकता है । और फिर तो उसके डाल, पात, फल और फूल भी कुम्हला जायेंगे। तभी चिदानन्दका प्रकाश होगा और यह जीव सिद्धावस्थामें अनन्त सुख विलस सकेगा।" मोह के निवारे राग द्वेषहू निवारें जाहिं, राग द्वेष टारें मोह नेक हू न पाइए। कर्म की उपाधि के निवारिवे को पेंच यहै, जड़ के उखारें वृक्ष कैसे ठहराइए॥ डार पात फल-फूल सबै कुम्हलाय जाय, कर्मन के वृक्षन को ऐसे के नसाइए। तबै होय चिदानन्द प्रगट प्रकाश रूप, बिलसै अनन्त सुख सिद्ध में कहाइए ॥' __अनन्त सुख ही परम शान्ति है। भैयाने एक सुन्दरसे पदमे जैन मतको शान्ति रसका मत कहा है। शान्तिको बात करनेवाले ही ज्ञानी है, अन्य तो सब अज्ञानी हो कहे जायेंगे। भूधरदासजोके स्वामीको शरण तो इसीलिए सच्ची है कि वे समर्थ और सम्पूर्ण शान्ति प्रदायक गुणों से युक्त है। भूधरदासको उनका बहुत बड़ा भरोसा है। उन्होंने जन्म-जरा आदि बैरियोंको जोत लिया है और मरनकी टेवसे छुटकारा पा गये हैं। उनसे भूधरदास अजर और अमर बननेकी प्रार्थना करते है। क्योंकि जबतक यह मनुष्य संसारके जन्म-मरणसे छुटकारा नहीं पायेगा, शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता । जैन-परम्परामें देवोंको अमर नहीं कहते । यहां अमरताका १. वही, मिथ्यात्व विध्वंसनचतुर्दशी, प्वाँ कवित्त, पृ० १२१ । २. शान्ति रस वारे कह मत को निवारे रहैं। वेई प्रानप्यारे रहें और सब वारे है ।। वही, ईश्वर निर्णय पच्चीसी, छठा कवित्त, पृष्ठ २५३ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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