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जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष
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कवि बनारसीदासने शान्तरसको आत्मिक रस कहा है, उसका आस्वादन करनेसे परम आनन्द मिलता है। वह आनन्द कामधेन, चित्रावेलि और पंचामृत भोजनके समान समझना चाहिए। इस आनन्दको साक्षात् करनेवाला चेतन जिसके घटमे विराजता है, उस जिनराजको बनारसीदासने वन्दना की है।
यह जीव संसारके बीचमे भटकता फिरता है, किन्तु उसे शान्ति नहीं मिलती। वह अपने अष्टादश दोषोसे प्रपीड़ित है और आकुलता उसे सताती ही रहती है । भैया भगवतीदासका कथन है, "हे जीव ! इस संमारके असंख्य कोटि सागरको पीकर भी तू प्यासा ही है और इस संसारके दीपोंमें जितना अन्न भरा है, उसको खाकर भी तू भूखा ही है। यह सब कुछ अठारह दोषोके कारण है । वे तभी जीते जा सकते है जब तू भगवान् जिनेन्द्रका ध्यान करे और उसी पथका अनुसरण करे, जिसपर वे स्वयं चले थे।" 'भैया' की दृष्टि से अष्टादश दोष हो
कब घर छोड़ होहुँ एकाकी, लिये लालसा बन की, ऐसो दशा होय कब मेरी, हौं बलि बलि वा छन को, दुबिधा०॥४॥
बनारसी विलास, जयपुर, १६५४, अध्यात्मपदपंक्ति, १३वाँ पद, पृ० २३१-२३२ । १. अनुभौ को केलि यह कामधेनु चित्रा बेलि,
अनुभौ को स्वादु पंच अमृत को कौर है ॥ बनारसीदास, नाटक समयसार, बम्बई, उत्थानिका, १६वाँ पद्य, पृ० १७-१८ । २. सत्य-सरूप सदा जिन्ह के, प्रगट्यौ अवदात मिथ्यात निकदन ।
सांत दसा तिन्ह की पहिचानि, करे कर जोरि बनारसि बंदन ॥
वही, मंगलाचरण, छठा पद्य, पृष्ठ ७। ३. जे तो जल लोक मध्य सागर असंख्य कोटि
ते तो जल पियो पैन प्यास याकी गयी है। जेते नाज दोप मध्य भरे है अवार ढेर, तेते नाज खायो तोऊ भूख याकी नई है। तात ध्यान ताको कर जाते यह जाँय हर, अष्टादश दोष आदि ये ही जोत लई है। वहे पंथ तू ही साजि अष्टादश जाहिं भाजि, होय बैठि महाराज तोहि सीख दई है ॥
'भैया' भगवतीदास, ब्रह्म विलास, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १९२६ ई०, शत अष्ठोत्तरी, १०६ वॉ कवित्त, पृ० ३२ ।