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________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि मोहके अभाव अर्थात् सर्वसमत्वको अनुभाव माना है।। जैन आचार्योने शान्तरसको जिस रूप में निरूपित किया, जैन कवियोने उसका सच्चे अर्थोंमे निर्वाह भी किया। उन्होने शान्तिकी ओटमें विलासिताको ओर आँख उठाकर देखा भी नहीं, उमको प्रश्रय देनेकी बात तो जहाँ-तहां रही। श्रृंगार रस-राज भले हो, किन्तु भक्तिके क्षेत्रमें तो उसे गौणपद ही मिलना चाहिए, किन्तु न जाने कैसे जयदेवके समयसे एक ऐसा विकृत प्रवाह बह पडा, जो कि अपने प्रखर वेगके कारण कभी रुका ही नहीं। विद्यापतिकी राधाकी स्पष्ट और मुखरित विलासिताको तो रवीन्द्रनाथ ठाकुरने भी स्वीकार किया है। 'सूरसागर में कहीं-कही ऐसे अश्लील स्थल है कि शालीन मनको रुचते नहीं। __ जैनोंके भक्ति-काव्योंम यदि एक ओर सांसारिक राग-द्वेषोंसे विरक्ति है, तो दूसरी ओर भगवान्से चरम-शान्तिकी याचना । उनको शान्ति तो चाहिए किन्तु अस्थायी नहीं। वे उस शान्तिके उपासक है जो कभी पृथक् न हो । जब तक मनसे दुविधा न मिटेगी, वह कभी भी गान्तिका अनुभव नहीं कर सकता। और यह दुविधा निजनाथ निरंजनके सुमिरन करनेसे ही दूर हो सकती है। कवि बनारसीदास अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए कहते है, "न जाने कब हमारे नेत्रचातक अक्षय-पदरूपी धनकी बूंदें चख सकेंगे, तभी उनको निराकुल शान्ति मिलेगी। और न जाने वह घड़ी कब आयेगी जब हृदयमें समता-भाव जगेगा। हृदयके अन्दर जबतक सुगुरुके वचनोंके प्रति दृढ श्रद्धा उत्पन्न नहीं होगी, परमार्थ सुख नहीं मिल सकता। उसके लिए एक ऐसो लालसाका उत्पन्न होना भी अनिवार्य है, जिसमे घर छोड़कर बनमें जानेका भाव उदित हुआ हो।" १. कब निजनाय निरंजन सुमिरो, तज सेवा जन-जन की, दुबिधा कब जै है या मन की ॥१॥ कब रुचि सौं पीवें दृग चातक, बूद अखयपद धन की। कब शुभ ध्यान घरौं समता गहि, करूं न ममता तन की, दुविधा० ॥२॥ कब घट अन्तर रहै निरन्तर, दिढता सुगुरु वचन की, कब सुख लहौं भेद परमारथ, मिटै धारना धन की, दुविधा० ॥३॥
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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