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________________ १११ जैन भक्ति-काव्यका माव-पक्ष जैनाचार्योंने 'मुक्ति दशा मे 'रसता'को स्वीकार नहीं किया है, यद्यपि वहाँ विराजित पूर्ण शान्तिको माना है। अर्थात सर्वज्ञ या अर्हन्त जबतक इस संसार में है, तभीतक उनकी 'शान्ति' शान्तरस कहलाती है, सिद्ध या मुक्त होनेपर नहीं । 'अभिवानराजेन्द्रकोश'मे 'रस'को परिभाषा बताते हुए लिखा है, "रस्यन्ते अन्तरात्मनाऽनुभूयन्ते इति रसाः'' अर्थात् अन्तरात्मा की अनुभूतिको रस कहते हैं । सिद्धावस्थामे अन्तरात्मा अनुभूतिसे ऊपर उठकर आनन्दका पुंज ही हो जाती है, अतः अनुभूतिको आवश्यकता हो नहीं रहती। जैनाचार्य वाग्भटने अपने 'वाग्भटालंकार'मे रसका निरूपण करते हुए लिखा है, "विमावैरनुमावैश्च, सात्त्विकैद्यमिचारिमिः । भारोप्यमाण उत्कर्ष स्थायीमावः स्मृतो रसः ।"" अर्थात् विभाव, अनुभाव, सात्त्विक और व्यभिचारियोंके द्वारा उत्कर्षको प्राप्त हुआ स्थायी भाव ही रस कहलाता है। सिद्धावस्थामे विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी आदि भावोंके अभावमें रस नहीं बन पाता। ___जैन आचार्योंने भी अन्य साहित्य-शास्त्रियोंकी भांति ही 'शम' को शान्तरसका स्थायीभाव माना है । भगवज्जिनसेनने 'अलंकारचिन्तामणि' में 'शम'को विशद करते हुए लिखा है, "विरागत्वादिना निर्विकारमनस्त्वं शम.", अर्थात् विरक्ति आदिके द्वारा मनका निर्विकारी होना शम है। यद्यपि आचार्य मम्मटने 'निर्वेद'को 'शान्त-रस' का स्थायी भाव माना है, किन्तु उन्होने, 'तत्त्वज्ञानजन्यनिर्वेदस्यैव शमरूपत्वात्' लिखकर निर्वेदको शम रूप ही स्वीकार किया है। आचार्य विश्वनाथने शम और निर्वेदमे भिन्नता मानी है और उन्होंने पहलेकी स्थायी भावमे और दूसरेको संचारी भावमे गणना की हैं। जैनाचार्योंने वैराग्योतत्तिके दो कारण माने है - तत्त्वज्ञान, इष्टवियोग-अनिष्टसंयोग। इसमे पहलेसे उत्पन्न हुआ वैराग्य स्थायी भाव है और दूसरा संचारी। इस भाँति उनका अभिमत भी आचार्य मम्मटसे ही मिलता-जुलता है। इसके साथ-साथ उन्होंने मम्मट तथा विश्वनाथकी भांति ही अनित्य जगत्को आलम्बन, जैनमन्दिर, जैनतीर्थक्षेत्र, जैनमूर्ति और जैनसाधुको उद्दीपन, धृत्यादिकोंको संचारी तथा काम, क्रोध, लोभ, १. देखिए, अमिधानराजेन्द्रकोश, 'रस' शब्द । २. आचार्य वाग्भट, वाग्भटालंकार। ३. भगवज्जिनसेनाचार्य, अलंकारचिन्तामणि । ४. आचार्य मम्मट, काव्यप्रकाश, चौखम्बा संस्कृत ग्रन्थमाला, संख्या ५६, १९२७ ई०, चतुर्थ उल्लास, पृ० १६४ । ५. प्राचार्य विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, शालिग्राम शास्त्रीकी व्याख्यासहित, लखनऊ, ३।२४५-२४६, पृ० १६६ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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