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________________ ४१० हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि अपने 'भक्तिसूत्र'मे 'सा त्वस्मिन् परम प्रेमरूपा अमृतस्वरूपा च'को भक्ति माना है। इसमे पड़े हुए 'परम प्रेम से यह ही ध्वनि निकलती है कि संसारसे वैराग्योन्मुख होकर एकमात्र ईश्वरसे प्रेम किया जाये। शान्तिमे भी वैराग्यकी हो प्रधानता है । 'भक्ति रसामृतसिन्धु'मे 'अन्याभिलापिताशून्यं कृष्णानुशीलनं उत्तमा भक्तिः । उपर्युक्त कथनका ही समर्थन करती है। यह कहना उपयुक्त नहीं है कि अनुरक्तिमे सदैव जलन होती है, चाहे वह ईश्वरके प्रति हो अथवा संसारके, क्योकि दोनोंमे महदन्तर है। सासारिक अनुरिक्त दु.खकी प्रतीक है और ईश्वरानुरिक्त दिव्य सुखको जन्म देती है। पहलीमे जलन है, तो दूसरीमे शीतलता, पहलीमें अपावनता है, तो दूसरोमे पवित्रता। और पहलोमे पुनः पुनः भ्रमणको बात है, तो दूसरीमे मुक्त हो जानेकी भूमिका। जैनाचार्य शान्तिके परम समर्थक थे। उन्होने एक मतसे, राग-द्वेषोसे विमुख होकर वीतरागी पथपर बढ़नेको ही शान्ति कहा है। उसे प्राप्त करनेके दो उपाय है - तत्त्व-चिन्तन और वोतरागियोंकी भक्ति । वीतरागमे किया गया अनुराग साधारण रागकी कोटिम नहीं आता, उसका विवेचन पहले अध्यायमे हो चुका है। उन्होने शान्तभावको चार अवस्थाएं स्वीकार की है - प्रथम अवस्था वह है जब मनकी प्रवृत्ति, दुःखरूपात्मक संसारसे हटकर आत्म-शोधनको ओर मुडती है। यह व्यापक और महत्त्वपूर्ण दशा है। दूसरी अवस्थामे उस प्रमादका परिष्कार किया जाता है, जिसके कारण संसारके सुख-दुःख सताते है । तीसरी अवस्था वह है जब कि कषाय-वासनाओका पूर्ण अभाव होनेपर निर्मल आत्माकी अनुभूति होती है। चौथो अवस्था केवलज्ञानके उत्पन्न होनेपर पूर्ण आत्मानुभूतिको कहते है । ये चारों अवस्थाएं आचार्य विश्वनाथके द्वारा कही गयी युक्त, वियुक्त और युक्त-वियुक्त दशाओके समान मानी जा सकती है। इनमे स्थित 'शम' भाव हो रसताको प्राप्त होता है। १. देखिए 'नारदप्रोक्तं भक्तिमूत्रम्', खेलाडीलाल ऐण्ड सन्ज, वाराणसी, पहला सूत्र । २. भक्तिरसामृत सिन्धु, गोस्वामी दामोदर शास्त्री सम्पादित, अच्युत ग्रन्थमाला ___ कार्यालय, काशी, वि० सं० १९८८, प्रथम संस्करण । ३. युक्तवियुक्तदशायामवस्थितो यः शमः स एव यतः। रसतामेति तदस्मिन्संचार्यादेः स्थितिश्च न विरुद्धा ॥ आचार्य विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, शालिग्राम शास्त्रीकी हिन्दी व्याख्या सहित, लखनऊ, द्वितीयावृत्ति, वि० सं० १६६१, १२५०, पृष्ठ १६८ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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