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________________ जैन भक्ति काव्यका भाव-पक्ष शान्तभाव पहलेके आचार्योंने 'शान्ति' को साहित्य मे अनिर्वचनीय आनन्दका विधायक नही माना था, किन्तु 'पण्डितराज' के अकाट्य तर्कों ने उसे भी रसके पदपर प्रतिष्ठित किया । तबसे अभीतक उसकी गणना रसोमे होती चली आ रही है । उसे मिलाकर नौ रस माने जाते है। जैनाचार्योंने भी इन्ही नौ रसोको स्वीकार किया है, किन्तु उन्होंने शृंगारके स्थानपर शान्तको 'रस-राज' माना है। उनका कथन है कि अनिर्वचनीय आनन्दकी सच्ची अनुभूति, राग-द्वेष नामक मनोविकार के उपशम हो जानेपर ही होती है । राग-द्वेषसे सम्बन्धित अन्य आठ रसोके स्थायी भावोंसे उत्पन्न हुए आनन्दमे वह गहरापन नही होता, जो 'शान्त' मे पाया जाता है। स्थायी आनन्दकी दृष्टिसे तो 'शान्त' हो, एक मात्र रस है । कवि वनारसीदासने 'नवों सान्त रसनि को नायक' माना है।' उन्होंने तो आठ रसोंका अन्तर्भाव भी शान्तरसमे ही किया है। डॉक्टर भगवानदासने भी अपने 'रस मीमांसा' नामके निबन्धमे, अनेकानेक संस्कृत उदाहरणोंके साथ, 'शान्त' को रसराज सिद्ध किया है । जहाँतक भक्तिका सम्बन्ध है, जैन और अजैन समीने 'शान्त' को ही प्रधानता दी है । यदि शाण्डिल्यके मतानुसार 'परानुरक्तिरीश्वरे' ही भक्ति है, तो यह भी ठोक है कि ईश्वरमे 'परानुरक्तिः' तभी हो सकती है, जब अपरकी अनुरक्ति समाप्त हो । अर्थात् जीवको मनःप्रवृत्ति संसारके अन्य पदार्थोस अनुराग-हीन होकर, ईश्वरमे अनुराग करने लगे, तभी वह भक्ति हैं, अन्यथा नहीं । और संसारको असार, अनित्य तथा दुःखमय मानकर मनका आत्मा अथवा परमात्मामें केन्द्रित हो जाना ही शान्ति है । इस भाँति ईश्वरमे 'परानुरक्ति : ' का अर्थ भी शान्ति ही हुआ । स्वामी सनातन देवजीने 'अपने भाव भक्तिकी भूमिकाएँ' नामक निबन्धमे लिखा है, "भगवदनुराग बढ़नेसे अन्य वस्तु और व्यक्तियोंके प्रति मनमे वैराग्य हो जाना भी स्वाभाविक ही है । भक्ति - शास्त्रमे भगवत्प्रेमकी इस प्रारम्भिक अवस्थाका नाम हो शान्तभाव है ।" नारदने भो ४०९ १. प्रथम सिंगार वीर दूजो रस, तीजी रस करुना सुखदायक । हास्य चतुर्थ रुद्र रस पंचम, छट्टम रस बीभच्छ विभायक ॥। सप्तम भय अमरस अद्भुत, नवमो शान्त रसनि को नायक । ए नत्र रस एई नव नाटक, जो जहं मगन सोइ तिहि लायक || बनारसीदास, नाटक समयसार, पं० बुद्धिलाल श्रावककी टीकासहित जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १०।१३३, पृ० ३६१ | २. स्वामी सनातनदेवजी, भावभक्तिकी भूमिकाऍ, कल्याण, भक्ति विशेषांक, वर्ष ३२० क १, पृ० ३६६
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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