SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य 'पट' हटाया जाता है तो सभाके सब लोग उसको भलीभांति देख लेते है । ठीक ऐसे ही आत्मा, जो मिथ्यात्व के परदेमे ढंका हुआ था, जब ज्ञानके शमादानके उजाले में प्रकट होता है तो सभी जीव उसे देख सकते हैं । आत्माको इम रूपमें देखनेवाले जीव संसार के ज्ञायक बनते हैं, " जैसे कोऊ पातुर बनाय वस्त्र आभरन, आवति अखारे निसि आढ़ौ पट करि कै, दुहूं और दीवटि संवारि पट दूरि कीजै, सकल सभा के लोग देखें दृष्टि धरि के || तैलें ज्ञान सागर मिथ्याति ग्रंथि भेदि करि, 1 उमग्यौ प्रगट रह्यौ तिहूं लोक भरि के ऐसो उपदेस सुनि चाहिए जगत जीत, सुद्धता संमारै जा जाल सौं निसरि कै ॥१३५॥” चेतन, अचेतनकी संगति में अचेत हो रहा है, उसीको कविने निद्राका रूपक मायाकी शय्यापर सो रहा । कर्मोंका बलवान् उदय ही देकर प्रस्तुत किया है | चेतन कायाकी चित्रसारीमें हैं | मोहके झकोरोंसे उसके नेत्रके पलक ढक गये हैं श्वासका शब्द है । विषय-सुख के लिए भटकना स्वप्न है। तीनों काल मग्न रहता है, इस मूढ़ दशामे आत्मा "काया चित्रसारी में करम परजंक मारी, माया की संवारी सेज चादर कलपना । शैन करे चेतन अचेतनता नींद किये, मोह की मरोर यह लोचन को ढपना ॥ उदे बल जोर यहै श्वास को शब्द घोर, विषै सुखकारी जा की दौर यह सपना । ऐसी मूढ़ दशा में मगन रहै तिहुं काल, धावे भ्रम जाल में न पावै रूप अपना || ७|१४|| " नाटक समयसारमें भक्ति २४ कवि बनारसीदासने नवधा भक्तिका निरूपण किया है, और वह इस प्रकार है, " श्रवन कोरतन चितवन, सेवन, वंदन, ध्यान लघुता, १८५ समता, एकता, नौधा भक्ति प्रदान |||९८|"
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy