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हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि
होनेके कारण सारभूत है, और उसका ही मुख्यतया कथन करनेके कारण इसका नाम 'समयसार' है ।
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आचार्य कुन्दकुन्दने 'समयसार' को नाटक नहीं कहा था, किन्तु अमृतचन्द्राचार्यने अपने संस्कृत कलशोंमें उसे नाटककी संज्ञा प्रदान की । बनारसीदासने भी उसे नाटक कहा है । इसमें जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष सात तत्त्व अभिनय करते हैं । उनमें प्रधान होनेके कारण जीव नायक है और अजीव प्रतिनायक | दोनोंके प्रतिस्पर्द्धा अभिनय विभिन्न रूपकोंके द्वारा प्रदर्शित किये गये है । आत्मा (जीव ) के स्वभाव और विभावको नाटकके ढंगपर बतलानेके कारण इसको 'नाटक समयसार' कहते हैं ।
नाटक समयसार में रूपकत्व
आत्मारूपी नट सत्तारूपी रंगभूमिपर ज्ञानका स्वांग बनाकर सदैव नृत्य करता है । पूर्व बन्धका नाश उसकी गायन विद्या है, नवीन बन्धका संवर ताल तोड़ना है, निःशंकित आदि आठ अंग उसके सहचारी हैं, समताका आलाप स्वरोंका उच्चारण हैं, और निर्जराकी ध्वनि ध्यानका मृदंग है । इस भाँति वह गायन और नृत्यमें लीन होकर आनन्दमें सराबोर हैं,
"पूर्व बंध नासे सो तो संगीत कला प्रकासे,
नव बंध रुधि ताक तोरत उछरि कै । निसंकित आदि अष्ट अंग संग सखा जोरि,
समता अलापचारी करै सुर मरि कै। निरजरा नाद गाजै ध्यान मिरदंग बाजै,
छायौ महानंद में समाधि राशि करि कै। सत्ता रंगभूमि में मुकत भयौ तिहूं काल,
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नाचे सुद्धदिष्टि नट ग्यान स्वांग धरि कै ॥
एक-दूसरे स्थानपर आत्माको 'पातुरी' बनाया गया है। एक नटी वस्त्र और आभूषणोंसे सजकर रातके समय नाट्यशालामें 'पट' आड़ा करके आती है तो किसीको दिखाई नहीं देती । किन्तु जब दोनों ओरके शमादान ठीक करके
१. आचार्य कुन्दकुन्द, समयसार, पाटनी दि० जैन ग्रन्थमाला, मारोठ, मारवाद, फरवरी १६५३, दूसरी गाथा, अमृतचन्द्राचार्यकी संस्कृत टीका, पृ० ८-६ २. बनारसीदास, नाटक समयसार, श्री बुद्धिलाल श्रावककी टीका सहित, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, वि० सं० १९८६, ७६१, पृ० २१५-२१६ ।