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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
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कविकी यह भक्ति कही अरिहन्त, कहीं अरिहन्त बिम्ब, कहीं सिद्ध, कहीं श्रुतदेवी, कही साधु और कहीं सम्यग्दृष्टियोके चरणोंमे समर्पित हुई है । अर्थात् कविने यदि एक ओर सगुणको वन्दना की है, तो दूसरी ओर निर्गुणकी आराधना । बनारसीदासका 'आत्मा' ज्ञानका नहीं, किन्तु भाव- क्षेत्रका विषय है। उन्होंने आत्मासम्बन्धी सिद्धान्तको नही अपितु आत्मानुभवको अपने इस नाटकका मुख्य विषय माना है । उन्होने कहा, "शुद्ध आत्माके अनुभवके अभ्याससे ही मोक्ष मिल सकता है अन्यथा नही ।"" उनका यह भी कथन है कि आत्माके अनेक गुणपर्यायोके विकल्पमें न पड़कर शुद्ध आत्माके अनुभवका रस पीना चाहिए। अपने स्वरूपमें लीन होना और शुद्ध आत्माका अनुभव करना ही श्रेयस्कर है । इस भाँति उनका आत्मा ज्ञेय कम और उपास्य अधिक है । भगवान् सिद्ध शुद्ध आत्माके प्रतीक है। उनकी वन्दना करते हुए कवि कहता है,
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'अविनासी अविकार परम रस धाम हैं । समाधान सरवंग सहज अभिराम हैं ।। सुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंत हैं । जगत शिरोमनि सिद्ध सदा जयवंत हैं । जिनराज वह ही है, जिसने शुद्ध आत्माके दर्शन कर लिये है । वह शुद्ध आत्मरूप जिनराज घट-मन्दिर मे विराजता है । कविने उसके चरणोमे अपनी भक्ति समर्पित करते हुए कहा है,
"जामें लोकालोक के सुभाव प्रतिभा से सब,
जगी ग्यान सकति विमल जैसी आरसी । दर्शन उद्योत लीयौ अंतराय अंत कीयौ,
गयौ महामोह भयौ परम महारसी ॥ सो घट- मन्दिर में चेतन प्रगट रूप,
ऐसो जिनराज ताहि वंदत बनारसी ॥
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१. सुद्ध परमातमा को अनुभी अभ्यास कीजें, यहे मोख पंथ परमारथ है इतनो ॥ नाटक समयसार, १० । १२५, पृ०३८८ । २. गुन परज में द्रिष्टि न दीजै ।
निरविकल्प अनुभी रस पीजै ॥ आप समाइ आप मैं लीज ।
तनपी मेटि अपनुपो कीजै ॥ वही, १०/११७, पृ० ३८३ ।
३. वही, मंगलाचरण, पृ० ५-६ । ४. वही, १।२९, पृ० ५९ ।
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