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________________ भूमिका शास्त्र-प्रवचनके समय मैने यह चरित सुना और 'प्रद्युम्नचरित'की रचना कर सका। __ 'सैली' गोष्ठीको कहते थे। आगरेमे ऐसी ही एक गोष्ठी थी, जिसमे निरन्तर आध्यात्मिक चर्चा हआ करती थी। बनारसीदास उसके सदस्य थे। वहाँ बैठने के कारण ही वे पण्डित बने और कवि भी। बनारसीदास तुलसीदासके समकालीन थे। दोनोंके मिलनकी बात इस ग्रन्थमे कही गयी है। आगे चलकर यह सैली 'वाणारसिया सम्प्रदाय' के नामसे प्रसिद्ध हुई । उससे प्रेरणा पाकर ही कुअरपाल, जगजीवन, हेमराज, भूधररास आदि उत्तम कवि बन सके। इसी समय दिल्लीमे पण्डित सुखानन्दकी सैली मान्य थी। हिन्दीके प्रमुख कवि द्यानतराय उसीसे प्रभावित होकर इतने महत्त्वपूर्ण भक्ति-काव्यकी रचना कर सके। उनकी पूजाएँ और आरतियाँ आज भी जैन मन्दिरोंमे पढ़ी जाती है। हिन्दीके जैन कवियोंको उर्दू फ़ारसीका भी अच्छा ज्ञान था। कवि बनारसीदासने जौनपुरके नवाबके बेटे किलिचको संस्कृत उर्दू-फ़ारसीके माध्यमसे पढ़ायी थी। भगवतीदास भैयाको अनेक रचनाओंमे उर्दू-फारसीके शब्द है। कवि विनोदीलालकी 'नेमतीको रेखता' भी उर्दूकी ही कृति है। उस समय स्थान-स्थानपर मकतब.बिछे हए थे। जैन कवियोकी प्रारम्भिक शिक्षा उन्हीमे हुई। हिन्दी भाषाका जो रूप गान्धीजी चाहते थे, इन जैन कवियोकी रचनाओंमे उपलब्ध होता है । साधु-सम्प्रदायोमें पले कवियोंकी भाषा संस्कृत-निष्ठ थी। ___जैन कवि दरबारी नहीं थे, किन्तु उन्होंने मुगलबादशाहोकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है, यहांतक कि औरंगजेबका भी गौरवके साथ उल्लेख किया है। रामचन्द्र और जगतराम हिन्दीके प्रसिद्ध कवि थे। उसकी मुक्तक कृतियां उत्तम काव्यकी निदर्शन है। उन्होंने औरंगजेबकी न्यायप्रियता, ईमानदारी, चरित्रनिष्ठता आदिकी बात लिखी है। शायद इतिहासकारोको औरंगजेबके सही आकलनमे इन उल्लेखोसे कुछ सहायता मिल सके। कवि सुन्दरदास शाहजहाँके दरबारमें नहीं रहते थे, किन्तु अपने सद्गुणोंकी प्रसिद्धिके कारण उनके कृपापात्र थे। कवि रंगबिजईको तो शाहजहाँने निमन्त्रण देकर बुलाया था। उन्होने शाहजहाँकी उदारताकी प्रशंसा की है। आगरेके हीरानन्द मुकाम सलीमके गहरे मित्र थे। प्रायः सलीम उनके घर जाता था। बादशाह होनेके बाद भी उसने हीरानन्दको सम्मानकी दृष्टिसे देखा। हीरानन्द एक अध्यात्मवादी कवि थे। कवि नन्दलालने भी जहाँगीरके उच्च व्यक्तित्वका वर्णन किया है। ब्रह्मगुलाल एक मजे हुए कवि थे। वे आगराके समीप ही रहते थे। उनका जहाँगीरसे सम्बन्ध नहीं था. फिर भी उन्होंने प्रशंसा की है।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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