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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
बनारसीदासने अकबर, जहाँगोर और शाहजहाँका शासनकाल देखा था। उनका 'नाटक समयसार' शाहजहाँके राज्यमें निर्विघ्न समाप्त हुआ था। उस समय धार्मिक उत्पीड़न नही था । मुसलमान बादशाह और नवाबोकी सहायतासे अनेक जैनयात्रा संघ निकल सके और जैन मूर्तियो तथा मन्दिरोकी प्रतिष्ठा हो सकी। सेठ धन्नाराय और हीरानन्दकी देख-रेखमे सैकड़ो जैनमन्दिर बने, ऐसा शिलालेखोसे स्पष्ट है। अकबरकी धार्मिक उदारता तो जगप्रसिद्ध थी। उन्होने जैन साधुओका सम्मान ही नहीं किया, अपितु उनके उपदेशोंपर अमल भी किया। जैन पर्वो और अष्टमी-चतुर्दशीको पशु-वध सदा-सदाके लिए बन्द कर दिया गया। कई विदेशी विद्वानोने अकबरको जैन कहा है। उनकी मृत्युका समाचार जब कवि बनारसोदासने सुना, तो तवाँडा आ गया, अपनेको संभाल न सके और नीचे गिर पड़े । उन्होने 'अर्धकथानक'मे लिखा है,
"अकस्मात बनारसी, सुनि अकबर को काल । सीढ़ी पर बैठ्यौ हुतौ, भयौ भरम चित चाल ॥ आइ तवाला गिरि परयौ, सक्यो न आपा राखि । फूटि माल लोहू चल्यो, कहयो, 'देव' मुख भाखि ।। लगी चोट पाखान की, भयौ गृहांगन लाल ।
'हाइ' 'हाई' सब करि उठे, मात तात बेहाल ॥" हिन्दीके अन्य जैन महाकवि ब्रह्मरायमल्ल, पाण्डे जिनदास, परिमल्ल और गणि महानन्द आदिने भी अकबरका गौरवपूर्ण स्मरण किया है। न वे अकबरके दरबारमे रहते थे और न उनका कोई निजी स्वार्थ ही सिद्ध होना था। वे सच्चे कवि थे। उनके कविहृदयने सम्राट अकबरके विशाल हृदयको पहचाना था। दिलोंकी यह आपसी पहचान ही उनके काव्योंमें उभर-उभर उठी है।
वि० सं० १८००-१९०० मे भी अनेक भक्तिपरक रचनाओंका निर्माण हुआ। उनके रचयिता शक्तिशाली कवि थे। किन्तु रीतिकालका उनपर प्रभाव था। उनकी भाषामे भी अलंकारोंको भरमार थी। लाला हरियशका जन्म वि. सं० १८६० मे, लाहौरके समीप कुसुमपुर ( कसूर ) में हुआ था। उनकी जाति
ओसवाल और गोत्र गान्धी था। बचपन विपत्तियोंमे बीता। फिर भी व्युत्पन्न होनेके कारण संस्कृत और प्राकृतके अच्छे ज्ञाता बन सके । उनकी भाषापर संस्कृत प्राकृतका प्रभाव है। उन्होंने 'साधुगुणमाला', 'देवाधिदेव रचना' और 'देवरचना' का निर्माण किया था। तीनों बहुत पहले प्रकाशित हुई थी। 'साधुगुणमाला' का एक पद्य देखिए, जो अलंकारसे बोझिल है,