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________________ भूमिका जिन केतक के दल के महिके, अलि के चित्त के भटिके बहिके । मधु के रुत के, बन के, सरके, पिक केम चुके विनके लवके । घन के घट के स्वर के सनके, किम केकि चके नृतके लटके। खग के रम के किम के तुटि के, कवि केम चुके स्तव के कथके ।। इसी युगमे एक कवि पारसदास हुए। जयपुरके रहनेवाले थे। वहाँके बड़े मन्दिरकी तेरापन्थी सैलीसे उन्हे प्रेरणा मिली और वे एक अच्छे कवि बन सके। उनका 'पारस विलास' एक प्रसिद्ध कृति है । उसमे 'अष्टोत्तरशतक', 'ब्रह्मछत्तीसी', 'सरस्वती अष्टक', 'उपदेश पच्चीसी', 'बाराखड़ी', 'चेतनसीष' आदि भक्तिपरक कृतियाँ है। कविकी हृदयगत तल्लीनता उनसे स्पष्ट हो जाती है। पाठक भावविभोर हुए बिना नही रहता। 'पारस विलास' की हस्तलिखित प्रति दि० जैन मन्दिर बड़ौतमे मौजूद है। कवि देवीदास भी हिन्दीके भक्त कवि थे । उनका जन्म ओरछा स्टेटके दूगोडा ग्राममे हआ था। इनकी जाति गोलालारे और वंश खरौआ था। इनकी प्रसिद्ध कृति है 'परमानन्द विलास' । उसमे भक्ति और अध्यात्मका समन्वय है। यह काव्य पं० परमानन्द शास्त्रीको उपलब्ध हुआ था। रचना सरस है। इसी शताब्दीमे कवि टेकचन्द हुए। उनका जन्म मेवाड़के शाहपुरामे हुआ था। उनके पिता रामकृष्ण जयपुर छोड़कर शाहपुरामे रहने लगे थे। टेकचन्द कुछ समय तक इन्दौरमे रहे और वहाँकी धार्मिक मण्डलीमें उन्हे ग्रन्थनिर्माणकी प्रेरणा मिली। उन्होने 'पुण्यास्रवकथाकोश', 'बुद्धिप्रकाश', 'श्रेणिकचरित्र', 'पंचपरमेष्ठि' आदि पूजाओ और पद-संग्रहोंका निर्माण किया। ये सब कवि भक्त होते हुए भी तत्कालीन साहित्यिक प्रवृत्तियोंसे प्रभावित थे। भले ही इन्होने नायिकाओका नखसे शिख तक वर्णन न किया हो, किन्तु उनकी भाषा नीचेसे ऊपर तक अलंकारोसे सुशोभित थी। वे भाषाकी स्वाभाविकतासे हटते जा रहे थे। __इस ग्रन्थके तीसरे अध्यायमें जैन भक्त कवियोंके भावपक्षपर लिखा गया है। पाँच भावोंको आधार बनाया है। वे इस प्रकार है : सख्य, वात्सल्य, प्रेम, विनय और शान्त । इनमे उत्तरोत्तर क्रमसे विशुद्धता आती गयी है। सर्वोत्कृष्ट है शान्त भाव । उसे अन्तमे रखा है । इन सबके परिप्रेक्ष्यमे जितने अन्य सूक्ष्म भाव हो सकते हैं, उनके विश्लेषणका प्रयास किया है। चौथा अध्याय कला-पक्षसे सम्बन्धित है। उसे भाषा, छन्द, अलंकार और प्रकृतिचित्रण-जैसे चार उपशीर्षकोंमे बांट दिया है । जैन कवियोंकी भाषा सरल और प्रवाहपूर्ण थी। उन्होंने अनेक नये छन्द, नयी राग-रागिनियोंमें प्रयुक्त किये।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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