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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
इस दिशा मे उनकी मौलिकता अनुकरणीय थी । अलंकारोके प्रयोगमे वे मर्यादाशील बने रहे । भक्ति काव्यका कोई अंश अलंकारोके कारण अपनी स्वाभाविकता न खो सका । अनेक जैन कवि प्रकृति के प्रांगण मे पले और वह ही उनका साधनाक्षेत्र बना । अतः वे 'प्रकृति-चित्रण' भी स्वाभाविक ढंगसे कर सके ।
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पाँचवाँ अध्याय तुलनात्मक है। उसमे निर्गुनिए सन्तों और वैष्णव कवियोंकी जैन कवियोसे तुलना की गयी है। मैने निरन्तर निष्पक्ष रहनेका प्रयत्न किया है । इस 'प्रबन्ध' का निर्देशन मान्य डॉ० छैलबिहारीलाल गुप्त राकेश, एम० ए०, डी० फिल०, डी० लिट्० ने किया था। मैं उनका हृदयसे आभारी हूँ | महापण्डित राहुल सांकृत्यायन और डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल इस शोध ग्रन्थके परीक्षक थे । उन्होंने एक मतसे इसे पी-एच० डी० के योग्य स्वीकार किया । मेरे लिए उनका आशीर्वाद ही था । शायद उनके प्रति मेरा यही आभार प्रदर्शन होगा कि मैं शोध - मार्गपर निरन्तर चलता रहूँ ।
भारतीय ज्ञानपीठके अधिकारियोका भी आभारी हूँ कि उन्होंने इस ग्रन्थको सहर्ष प्रकाशित कर दिया ।
दि० जैन कॉलेज, बड़ौत (मेरठ) २२ जनवरी, १६६४
- ( डॉ० ) प्रेमसागर जैन